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[ ३७ ] बालक "शुक्ल पक्षे यथा शशी" की तरह बढ़ने लगे एवं वाल्य काल में ही अनेक कलाओं से परिचित हा गये। इनकी प्रतिभा से सब चकित थे। माता पिता को बड़ा आनन्द था।
विक्रम संवत् १६०४ में खरतरगच्छ के नायक श्री जिन माणिक्य सूरि जी का अपने शिष्य समाज के साथ खेतसर में आना हुआ। वे बड़े ही विद्वान् एवं प्रभावशाली व्याख्यान दाता थे। खेतसर में उन्होंने अपने धर्म के ऊपर एवं संसार की क्षणभंगुरता के ऊपर बड़ा ही हृदयस्पर्शी उपदेश दिया। जिसका जनता के ऊपर भी बड़ा प्रभाव पड़ा, पर सुलतान कुमार के दिमाग पर तो जादूका-सा असर कर गया। फलतः सुलतान कुमार ने अपने माता-पिता को अनेक युक्तियों के द्वारा राजी करके सं० १६०४ में श्री जिन माणिक्यसूरिजी से दीक्षा ले ली। अब इनका नाम सुमति धीर पड़ा। दीक्षा लेने के समय इनको उमर ६ साल की थी, फिर भी मेधावी होने के कारण एकादश अंगादि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर पूर्ण योग्य तथा व्याख्यान कुशल हो गये। ये अपने गुरु के सदा साथ बिचरा करते थे। एक समय अपने गुरु के साथ १६१२ में देराउर के रास्ते जेसलमेर आ रहे थे अचानक श्री जिन माणिक्य सूरिजी की जीवनलीला सं० १६१२ की आषाढ़ शुक्ल पञ्चमी को समाप्त हो गई। अग्नि संस्कारादि काम करा लेने के बाद अन्य साधुओं के साथ वे जेसलमेर पहुंचे। यद्यपि श्री माणिक्य सूरि जी के २४ शिष्य थे, फिर भी वे अपने पद पर किसी को स्थापित न कर सके थे। अतएव जेसलमर आने पर पदाधिकारी के निर्वाचन में मतभेद उठ खड़ा हुआ। पर समस्त संघ तथा वहां के रावल श्रीमालदेवजी ने (राज्यकाल सं० १६०७ से १६१८ तक ) बेगड़गच्छ के श्री पूज्य गुण प्रभ सूरिजी की सम्मति से बड़े समारोह के साथ नन्दी महोत्सव कराकर संवत् १६१८ की भाद्र शुक्ल नवमी गुरुवार को श्री सुमतिधीर जी को आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। माणिश्य सूरिजी ने ही इन्हे सूरि मन्त्र दिया एवं श्री जिन हंस सूरिजी के विद्वान शिष्य महोपाध्याय श्री पुण्य सागरजी ने इन्हें आचार्य पदोचित योग्यता की शिक्षा दी। जिस रोज ये आचार्य पद पर आसीन हुए उसी रात में श्री जिन माणिक्य सूरिजी ने इन्हे स्वप्न में दर्शन दिया और समवसर को पुस्तक में साम्नाय सूरि मन्त्र का संकेत करके अन्तर्हित हो गये। याद रहे अब सुमति धीर नाम न रहकर इनका नाम श्री जिनचन्द्र सुरीजी पड़ा। सम्बत् १६१८ का चातुर्मास इनका जेसलमेर में ही बीता। बाद में विहार करते हुए लोक कल्याण में दिलोजान से आप लग पड़े।
___ इन्हीं महापुरुष के समय में तपगच्छ में एक विद्वान् किन्तु दुराग्रही उपाध्याय धर्मसागर थे। जो कहा करता था कि नवाङ्गी वृत्ति कर्ता श्री अभयदेव सूरि खरतरगच्छमें नहीं हुए है, क्योंकि इस गच्छ की तो उत्पचि ही उनके बाद सम्वत् १२०४ में हुई है। इसके अतिरिक्त उसने गच्छवालों को 'उत्सूत्रभापी' सिद्ध करने के लिये "औष्ट्रिक मतोत्सूत्र दीपिका" "तत्त्व तरङ्गिणी वृत्ति" तथा ( कुमति कन्द फुद्दाल ) आदि विपला साहित्य लिखकर जैन शासन में फूट पैदा करना शुरू कर दिया था। भट्टारक श्री जिनचन्द्र सूरिजी का सम्वत् १६१७ का चातुर्मास गुजरात के सुविख्यात नगर पाटण में हुआ। फलत. आपने जैन समाज में एकता कायम रखने की इच्छा से पाटण के सभी गच्छों के आचार्यो को १६१७ की कार्तिक शुक्ला चौथ को बुलाया और उन लोगों की देखरेख में धर्मसागर को शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया। पर बारम्बार बुलाने पर भी धर्मसागर शास्त्रार्थ करने के लिये उपस्थित नहीं हुआ। आखिर सभी गच्छचालों ने मिलकर श्री जिनचन्द्र सूरिजी की अध्यक्षता मे धर्मसागर के मत का खण्डन किया और समाज में एकता सुव्यवस्थित रखने के लिये धर्मसागर का बहिष्कार कर दिया। इस काम से इनकी बड़ी प्रतिष्ठा