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जैन-रत्नसार
शिव
सुख धारी रे । जगत भाव परकाशक भानू, निज गुण रूप सुधारी रे || तु० ||४|| सकल विमल गुण धारक जगमें, सेवत सब नर नारी रे, आतम शुद्ध सरूपी भविजन गुण मणिरयण भंडारी रे || तु० ||५|| केवल केवलज्ञान विराजे, दृजो भेद न धारी रे । आतम भावे भविजन सेवो, जगजीवन हितकारी रे || तु० ॥६॥ और ज्ञान सब देश कहावे, केवल सरव विहारी रे । सर्व प्रदेशी जिनवर भाखे, साखे श्रीगणधारी रे ॥ तु० ॥७॥ भए अयोगी गुणके धारक, श्रेणि चढ़ी सुखकारी रे । अष्ट कर्मदल दूर करीने, परमातम पद धारी रे ॥ तु० ||८|| ऐसो ज्ञान बडो जगमांहे, सेवो शुद्ध आचारी रे । सुमति कहे भविजन सुभ भावें, पूजो कर इकतारी रे ॥ तु० ॥९॥ फल अक्षत दीपक नैवेद्यसे, पूजो ज्ञान उदारी रे । पूजत अनुभव सत्ता प्रगटे, विलसें सुख ब्रह्मचारी रे ॥ तु० ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री केवलज्ञान ज्ञानधारकेभ्यो अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे वाहा ।
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कलश
( केसरियाने जहाजको लोक तिरायो )
असरण सरण कहायो, प्रभु थारो ज्ञान अनंत सुहायो ॥ अ० ॥ मति श्रुति अवधि अने मनपर्यव, केवल अधिक कहायो । भव्य सकल उपगार करत हैं, श्रीजिनराज बतायो ॥ प्र० ॥ ११॥ खरतरगच्छपति चन्द्रसूरीश्वर, राजत राज सवायो । तेजपुंज रवि शशि सम सोहे, देखत दिल उलसायो || प्र० ॥१२॥ प्रीतसागर गणि शिष्य सुवाचक, अमृतधर्म सुपायो । शिष्य क्षमाकल्याण सुपाठक, सदगुरु नाम धरायो || प्र० १३ ॥ धरम विशाल दयाल जगतमें, ज्ञान दिवाकर ध्यायो । ज्ञान क्रियानो मूल जे कहिये । तत्वरमण मन भायो ॥ प्र० १४ ॥ बीकानेर नगर अति सुंदर, संघ सकल सुखदायो । शुद्धमति जिन धर्म आराधक, भगत करो मुनि रायो ॥ प्र० १५ ॥ उगणीसे चालीसे वरसे, आसु सुदि वरदायो । ज्ञान
* यह पूजा श्री सुमति विजयजी महाराज की बनाई हुई है और सम्बत् १६४० आसोज सुदी में बनी है।