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आरती-विभाग
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। प्रमाद तजीने भविजन, जिन कल्याण धरी ॥ जय० ४ ॥ श्री जिनचन्द्र । अखय निधि कारन सुध दर्शन दायी, त्रिकरण शुद्धे निश दिन ध्यावत शिव संपति पायी ॥ जय० ५ ॥
निर्वाण ( कल्याणक ) आरती ____ जय जगदीश्वर अति अलवेशर वीर प्रभूराया। पतित उधारण भव । भय भंजण, बोध बीज पाया ॥ जय जय जिनराया, आरती करूं मन भाया होय कंचन काया ॥ जय० १ ॥ क्षत्रिय कुण्ड नगर अति सुन्दर, सिद्धारथ राया। सुदि आषाढ़ छट्ठके दिवसे, त्रिसला कुक्षी आया ॥जय०२॥ चौद सुपन देखी अति उत्तम, निज प्रीतम भाखे । अरथ भेद सहु निश्चे करिने, जिन गुण रस चाखे ॥ जय० ३ ॥ चैत्र सुदी तेरस दिन उत्तम, । सहु ग्रह उच्च पावे । जन्म देई दिश कुमरी सहुना, आसन कंपावे ॥ जय०
४॥ उच्छव कर जावे निज थानक, इन्द्र सहू आवे । मेरु शिखर पर स्नात्र महोत्सव, करि आनन्द पावे ॥ जय० ५ ॥ वसुधारा वृष्टी कर सहु सुर, निज थानक जावे । सिद्धारथ करे जन्म महोत्सव अचरज सहु पावे ॥ जय० ६ ॥ कंचन वरण तेज अति दीपत, हरि लंछन छाजे । कुल इक्ष्वाकु अंग सहु लक्षण, शशि ज्यों मुख राजे ॥ जय० ७ ॥ दान सम्वत्सर दे प्रभु लेवे, चारित्र सुखदाई। मार्गशीर्ष दशमी बदि पक्षे, उत्तम तरु पाई ।। जय० ८ ॥ बारे वरप छद्मस्थपना में, दुष्कर तप पाले । भादव सुद दसमी के दिनकू, दोष सडू टाले ॥ जय० ९ ॥ केवल पाये सभी सुर संगे, पावापुरि आने । गुणगण लंकृत देशना देके संघ सद पाव ॥ जय० १० ॥ भूमंडल विच बहू जीवको, अविचल सुख देवे । सुरनर इन्द्र सभी मिल पूजे, जगमें यश लेवे ॥ जय० ११ ॥ चरम चौमामा पायापुरि करके, अन्त समय जाणी। हस्त पालकी शुक् सालमें, माल पहा वाणी ॥ जय० १२ ॥ परियंकासन छह नपन्या. एक चित्त गुण भनी । कात्तिक कृष्ण अमावसके दिन, शिव कमला पामी ॥ जय० १३ ॥ इन्द्रादिक निर्वाण महान्सव, करि प्रभु गुण गावे । देव मुव गणधर गुरु