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स्तवन-विभाग
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जी, बात कहूं आपवीत ॥ १॥ कृपानाथ मुझ वीनति अवधार, तूं समरथ त्रिभुवन घणी जी, मुझने दुस्तर तार ॥ कृ० २ ॥ भवसागर भमतां थकां जी, दीठां दुःख अनंत । भाव संयोगे भेटियो जी, भय भंजन भगवंत ॥ कृ० ३ ॥ जे दुख भांजे आपणा जी, तेहने कहिये दुःख। पर दुःख भंजण तूं सुण्यो जी, सेवग ने दो सुक्ख ॥ कृ. ४॥ आलोयण लीधां पखे जी, जीव रुले संसार । रूपी लक्ष्मणा महासती जी, एह सुणो अधिकार ॥ कृ. ५॥ दुषम काले दोहिलो जी, सूधो गुरु संयोग । परमारथ पीछे नहीं जी, गडर प्रवाही लोक ॥ कृ. ६ ॥ तिण तुझ आगल आपणा जी, पाप आलोऊं आज । माय बाप आगल बोलतां जी, बालक केही लाज ॥ कृ. ७ ॥ जिनधर्म जिनधर्म सहु कहें जी, थापे अपणी जो चात । समाचारी जुइ जुई जी, संशय पड्यां मिथ्यात ।। कृ० ८ ॥ जाण अजाण पणे करी जी, बोल्या उत्सूत्र बोल । रतने काग उड़ावतां जी, हारयो जनम निठोल ॥ कृ. ९ ॥ भगवंत भाख्यो ते कह्या जी, किहां मुझ करणी एह । गज पाखर खर किम सहें जी, सबल विमासण तेह ।। कृ० १० ॥ आप परूं पूं आकरो जी, जाणे लोक महंत । पिण न करूं परमादियो जी, मासाहस दृष्टान्त ॥ कृ० ११ ॥ काल अनन्ते मैं लह्या जी, तीन रतन श्रीकार । पिण परमादे पाड़िया जी, किहां जइ करूं पुकार ॥
कृ० १२ ।। जाणं उत्कृष्टी करूं जी, उद्यत करूंअ विहार । धीरज जीव 3. धरे नहीं जी, पोते बहु संसार ॥ कृ० १३ ॥ सहज पड्यो मुझ आकरो
जी, न गमें भंड़ी बात । पर निन्दा करतां थकां जी, जाये दिन में 3 रात ॥ कृ० १४ ॥ किरिया करतां दोहिली जी, आलस आणे जीव । घरम 3 पखे धंदे पड्यो जी, नरके करसी रीव ॥ कृ० १५ ।। अणहुँता गुण को ,
कहें जी, तो हरखं निसदीस । को हित सीख भली दिये जी, तो मन 3 आणं रीस ।। कृ० १६ ॥ वाद भणी विद्या भणी जी, पर रंजण उपदेश ।
मन संवेग धरचो नहीं जी, किम संसार तरस । कृ० १७ ॥ सूत्र सिद्धान्त : वखाणतां जी, सुणतां करम विपाक । खिण इक मन माहे उपजे जी, मुझ : मरकट वैराग ॥ कृ० १८ ॥ त्रिविध त्रिविध कर ऊचन्द जी, भगवंत तुम्ह :