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जैन - रत्नसार
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( मूरति शान्ति जिनन्दनी )
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समवसरण छवि निरखने, सुरनर मुनि हरखाय ॥ स० ॥ ज्ञान घनाघन ऊमह्यो, गरजारवधुनि थाय । आतम परणति बीजली, आतम नयरिपोष || स० २ ॥ शतत्रय जिहां धनु जलधारा उपदेशे । भविजन मन निश्चल रही, चातक विरत विशेषे || स० ३ ॥ करम ताप उपशम जिहां, वक पंक्ति शुभ ध्यान । वायूते स्याद्वादता निरुपम जिनचन्द्र वान || सम० ४ ॥
॥ श्लोक ॥
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देवेन्द्रः यस्य भक्त्या समवशरण के चैत्य पीठं च चक्रे, श्री तीर्था धिप वचन गुणयुतः प्रातिहार्याष्ट युक्तः । चत्वारो मूलरूपै रतिशय सहजै रुद्रघातिक्षयाच्चनंदं द्विमाधिकैकं परमतिशयैश्चन्दनैरर्च्चयेऽह ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यः चन्दनं
हे स्वाहा ।
पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥
सकल गुण निर्मल करी, भावो जल जिनराय । द्रव्योज्वल सत्पुष्पथी, पूजो जन मन भाय ॥१॥
( जाग रे सब रयण विहानी )
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प्रभु निरखत भवि मन अति लोभा ॥ प्र० ॥ समवसरण विच स्वामि विराजे, द्वादश पर्षद अनुपम शोभा ॥ प्र० २ ॥ अष्ट प्रातिहार व्यञ्जन करि शोभे, मनोहर पैंतिस गुणयुत वाणी । घातिक्षय एकादश अतिशय मूला तिशय चार वखाणी ॥ प्र० ३ ॥ एकोनविंशति सुरकृति अतिशय, परिणामिक सत्ता ये विलासी । श्री जिनचन्द्रजी पूरण ज्ञानी, विन चिंतन अप्रयासी ॥ प्र० ४॥