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जैन-रत्नसार
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अलगो थई ऊपरि वाडे निकले तेह ||५|| जो कोई रीतें प्रभुजी, तुम थी यहीं अवाय, तो इण भरतना वासी भविजन पावन थाय । साहिब नी तो सुनजर सघले सरखी होय, पन पोतानी प्राप्ति सारूं फल प्रति जोय ॥६॥ अलगो छू पण माहरे तुमसूं साची प्रीत, गुण गुणवंतना आवे हियड़े खि खिण चित्त | हूं छू सेवक तूं छे माहरो आतमराम, न हिय विसारूं जी ज्यां लगि ताहरूं नाम ||७|| साचे दिल थी मुझ सूं धर जो धरम सनेह, करुणाकर प्रभु कर जो मोपरि महिर अछेह । दुसम काल तणो दुःख टालो दीनदयाल, पालो विरुद संभालो निज सेवक सं कृपाल ||८|| आशविलुद्धा अलग थकी पण करे अरदास, पण मोटानी महिर छतां नवि थाय निराश | केई से प्रभु पासे केई बसे छे दूर, राज महिर नी रीतें सकल ने जाणें हजूर ||९|| शिव सुखदायक नायक लायक स्वामिसुरंग, ध्यायक ध्येय स्वरूप लहे आत्म उमंग । सहिजें एक पलक तो थाये प्रभु तुझ संग, लाभ उदय जिनचन्द्र लहे नित प्रेम अभंग ॥१०
द्वितीया का स्तवन
सकल संसार अवतार ए हूँ गणं, सामि सीमंधरा तुम्ह भगते भं । भेटवा पाय कमल भाव हियडे घणो, करिय सुपसाय जे वीनवूं ते सुणूं ॥१॥ तुम्ह सं कूड अरिहन्त सू' राखिये, जिस्यो अछे तिस्यो कर जोड़ि करि भाखये । अति सबल मुझ हिये मोह माया घणी, एक मन भगति किम करूं त्रिभुवण घणी ||२|| जीव आरति करे नव नवी परिगडे, रीश तेंम चटको चढ़े लोभ वयरी नड़े । वयण रस नयण रस काम रस रसियो, अरिहन्त तू हि नवी वसियो ||३|| दिवस ने राति हियड़े अनेरो धरूं मूढ़ मन रीझवा बलिय माया करूं । तू ही अरिहन्त जाणे जिस्यो आचरूं ते कर जेम संसार सागर तरूं || ४ || कर्म्मवसि सुक्खने दुःख जेहूं सहूं, मन तणी बात अरिहंत किणने कहूं । करि दया करि मया देव करुणा परा, दुःख हरि सुक्ख करि सामि सीमंधरा ॥५॥ जाण संयोग आगम वयण पण सुनूं, धर्म ने कराय प्रभु पाप पोते घनूं । एक अरिहंत तू देव बीजो नहीं,