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మన మనవడు వదులుకుని నడుము చుటకు వదులుకువుండడము మందు గురువును తగthishastry ४५४
जैन-रनसार
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दामनी अमोल बोल, सिद्धराज तूं । देउं वरदान छोड, बंध कीन | क्यूं ॥ दी० ८ ॥ दत्त नाम जपत जाप, करत नांह चूं । फेर मैं पडूंगी। नाह, छोड़ दीन फं॥ दी. ९॥ करोगे निहाल आप, पाव पलक । रामऋद्धिसार दास, चरण छांह लूं ॥ दी. १० ॥
॥ श्लोक ॥ मलय चन्दन केसर वारिणा, निखिल जाड्यरुजातपहारिणा। सकल मङ्गल वाञ्छित दायक, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥११॥ ॐ ह्रीं परम पुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते श्री जिनशासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो कुंकुम चन्दनं निर्वपामि स्वाहा।
पुष्प पूजा
॥ दोहा ।। चंपा चमेली मालती, मरुवा अरु मुचकुंद। जो चाढे गुरु चरण पर, नित घर होय आनंद ॥१॥
(नींद तो गइ वादीला म्हारी) गुरु परतिख सुरतरु रूप, सुगुरु सम दुजो तो नहीं। दुजो तो नहीं रे सुमतिजन, दुजो तो नहीं ॥ गु०॥ चित्तौड नगरी वजथंभमें, विद्या पोथि रही रे । हेजी यंत्र मंत्र विद्यासे पूरी, गुरु निज हाथ ग्रही ॥ गु० २ ॥ पुर उज्जैनी महाकालके, मंदिर थंभ कही रे। हेजी सिद्धसेन दिनकरकी पोथी, विद्या सर्व लही रे ॥ गु० ३ ॥ उज्जैनी व्याख्यान बीचमें, श्राविका रूप ग्रही रे । हेजी जोगनियां छलनेको आई,सबको कील दई ॥ गु० ४ ॥
दीन होय जोगनियां चौसठ, गुरुकी दासि भई रे। हेजी सात दिये वर। दान हरषसें, पसरया सुजस मही ॥ गु० ५ ॥ पुष्पमाल गुरुगुणकी गूंथी, । चाढो चित्त चही रे । हेजी कहे रामऋद्धसार सुजसकी, बूंटी आप । दई ॥ गु० ६ ॥
॥ श्लोक ॥ कमलचम्पक केतकि पुष्पकैः, परिमलाहतषट्पदवृन्दकैः । सकल मङ्गल