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जैन - रत्नसार
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'क्खरवरदी ० १ सुअस्स भगवओ करेमि • अणत्थ० ' पढ़, एक णमोक्कार • का काउसग्ग पार तीसरी स्तुति कहे । तदनन्तर 'सिद्धाणं बुद्धानं ०२ वेयावच्चगराणं. अणत्थ० ' बोल एक णमोक्कार • का काउसग्ग पार चौथी स्तुति कहे । तत्पश्चात् 'शक्रस्तव'• पढ़ तीन खमासमण पूर्वक आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को वन्दन करे ।
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यहीं राई प्रतिक्रमण की समाप्ति हो जाती है अगर विशेष भाव तथा स्थिरता हो तो उत्तर दिशा की तरफ मुख करके तीन खमासमण दे 'इच्छाकारेण० चैत्यवन्दन करूं ?' 'इच्छं' कह श्री सीमंधर स्वामीका चैत्यवन्दन पढ़े । तदनन्तर 'जंकिंचि०, णमुत्थुणं०, जावंति चेइआई०, जावंत के विसाहू, नमोऽर्हत्०' कह श्री सीमंधर स्वामी के स्तवनों में से कोइ एक स्तवन बोलकर जयवीयराय०५, अरिहंत चेइयाणं०, वंदणवत्तिआए• तथा अणत्थ• कहने के बाद अप्पाणं वोसरामि पर्यन्त एक णमोक्कार • का ध्यान करके 'नमोऽर्हत्॰' कहकर श्रीसीमंधर स्वामीकी थुई कहे । इसी तरह तीन खमासमण देकर 'श्री सिद्धाचलजी' का चैत्यवन्दन, स्तवन और थुई । कहे अगर विशेष स्थिरता हो तो अष्टापदजी का चैत्यवन्दन, स्तवन, थुई कहे । तदनन्तर पडिलेहण करे । फिर सामायिक पूर्वोक्त विधि से पारे ।
देवसिक प्रतिक्रमण की विधि |
प्रथम सन्ध्याकालीन सामायिक ग्रहण करे । फिर तीन खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन करूं ' कहे। गुरु के 'करेह' कहने पर 'इच्छं' कह, फिर 'जय तिहुअण० 'की । ५ या ७ गाथा, तक'जय महायस०', ' णमुत्थुणं०, अरिहंत चेइयाणं०, अणत्थ कह एक णमोक्कारका काउसग्ग करे । पार के ' नमोऽर्हत् ० ' कह प्रथम थुई ( तुति ) कहे । तदनन्तर 'लोगस्स ०', सव्वलोए०', 'अरिहंत चेइयाणं०', अणत्य • कह, एक णमोक्कार
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