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स्तवन-विभाग
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उधारण बिरुध तुमारो, ए तीरथ जग सारा रे ॥ धन्य सिद्धा. ३ ॥ भाव : भगति सं प्रभु गुण गावे, अपना जनम सुधारा । यात्रा करी भविजन शुभभावें, नरक तियच गति वारा रे ॥ सिद्धा धन्य० ४॥ संवत अठार त्रयासी आषाढ़े, वदि आठम भौमवारा । प्रभुजी के चरण प्रताप संघ में 'क्षमारतन' प्रभु प्यारा रे ॥ धन्य. सिद्धा० ५॥
अष्टापद गिरि स्तवनम् मनडो अष्टापद मोह्यो माहरो जी, नाम जपं निशिदीस जी। चत्तारि अह दस दोय वंदियाजी, चिहुं दिशि जिन चौवीसजी ॥ म० १॥ योजन योजन अन्तरेजी, पावडशाला आठजी । आठ योजन ऊंचो देहरोजी, दुःख दोहग जाय नाठजी ॥ म० २ ॥ भरतें भराव्या भलां देहराजी, सोभा यारां में धुंभजी। आपे मूरत सेवा करे जी जाण जोई ने ऊभजी ॥ म० ३ ॥ गौतम स्वामि तिहां चढ्याजी, बली भागीरथ गंगजी। गोत्र तीर्थंकर
बांधियाजी, रावण नाटक रंगजी ॥ म० ४ ॥ दैव न दीधी मुझने पाखंडी * जी, आवू केम हजूरजी । समय सुन्दर कहे चन्दना जी, प्रहऊ गमते सूर जी ॥ म. ५॥
पर्यषण स्तवन ____ करलो करलो रे थे भविजन प्राणी शिव सुख वर लो ॥ पर्व पजूसण करलो ॥ सब सुरवर मिल निज निज भक्ते, द्वीप नंदीश्वर जावे रे । आठ दिवस अट्ठाई महोत्सव कर सुख पावे रे ॥ पजूसण० १॥ तिम भव प्राणी आतम शक्ते, धार्मिक कार्य आराधो रे। जिनवरजीकी पूजा करके, शिव सुख साधो रे ॥ पजूसण. २ ॥ विविध प्रकारे पूजा रचावो, समकित निर्मल करलो रे । आंगी भावना मन सुध करके, भवजल तरलो रे ॥ पजू० ३ आठ दिवस अट्ठाई तपस्या, करके काज सुधारो रे । जैन धर्म की महिम करके मान बधारो रे ॥ पजूसण. ४ ॥ हाथी घोड़ा और पालखी, रथ : तयारी करावो रे । वस्त्राभूषण सज कर, भवियण मंगल गावो रे ॥ प०५ बाजे गाजे सब मिल गौरी. गुरुके पासे जावो रे । कल्पमूत्रको लेकर म