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सूत्र विभाग जिनकी सात लवकी आयु है. वे देवता भी अवनकालमें शोचा करते हैं कि धर्म के मिवाय अन्य सब वस्तुयें नश्वर ( नाश ) हैं ॥२८॥ ___कह तं भण्णइ मुक्खं, सुचिरेण वि जम्स दुक्खमल्लि हियए ।
जं च मरणावसाणे, भव संसाराणु बंधिं च ॥२९॥ वह मुग्व मुग्व नहीं है, जो अन्त में दुःख रुप परिणत हो जाय । अतएव देवत्व में भी मुख नहीं है, क्योंकि आखिर देवत्व से च्युत होकर संसार में चक्कर लगाना पड़ता है ॥२९॥
उवएस सहस्सहिं, बोहिजंती ण बुझई कोई।
जह बंभदत्तगया, उदाइणि मारओ चंब ॥३०॥
किसी किसी मनुष्य को हजारों बार उपदेश देने पर भी बोध नहीं : होता है। जैसे चक्रवती ब्रह्मदत्त और उदायि राजा के माग्नेवाले पर 2 उपदेश का कुछ भी असर नहीं हुआ ॥३०॥
गवकण्ण चंचलाए, अपरिच्चत्ताइ राय लच्छीए ।
जीवालकम्म कलिमल, भरिय भरातो पडंति अहे ॥३॥
अपरिचित तथा अपने कर्मरूप मेल के बोझ से नीचे की ओर ले ' जानवाली हाथी के कर्ण की तरह चञ्चल राजलक्ष्मी भी जीवों को अधोगति • प्रदान करनी है : फलतः गजलक्ष्मी से भी कुछ होने जाने का नहीं ॥३॥
वात्तृणवि जीवाणं, मुद्रुक्कराईति पाव चरियाई ।
भयवं जा सा साना, पन्चागली ह इणमा ते ॥३२॥
जीवों की प्राणियों के विशेष खोटे आचरणों ने कहना भी दुष्कर : हो जाता है । हे भगवन ! जो मेरी बी है, वह किनी समय मेरी बहन
धी! अनः कर्म की लीला विचित्र है. यह कहना पड़ेगा। हर हालात में • पापामग्ण से बचना चाहिये ॥३२॥
पटिवटिजण दोन. गियर सन्नं च पाय वडियान ।
नो कि मिगाईए. उप्पागं केवलं जागं ॥ निश्चय पूर्व मन्दीमांति मन वचन को शुद्ध करके अपने दाग की : . . . . . . . . . . . . . . . .