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जैन - रत्नसार
वह ठीक उसी उसी समय शुभ या अशुभ परिणामों से आबद्ध हो
जाता है ||२३||
धम्मो मएण हुंतो, तो गवि सीउन्ह वाय विजड़िओ । संवच्छर मणसीओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२४॥ वर्ष भरतक शीतोष्ण सहते हुए, निराहार रहते हुए उतने क्लेश शारीरिक तकलीफों को बर्दाश्त करते हुए बाहुबली ने कठिन तपस्या की ; पर हृदय में घमण्ड था, नतीजा यह हुआ कि केवल ज्ञान न मिला । इसलिये घमण्ड छोड़ देने पर ही साधुको सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है ॥२४॥ णियगमइ विगप्पिय, चितिएण सच्छंद बुद्धि चरिएण ।
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अणुवए सेणं ||२५||
कत्तो पारतहियं, कीरइ गुरु गुरु के उपदेश को ग्रहण करने में असमर्थ अथवा उछृङ्खलता से अपनी बुद्धिमानी के घमण्ड से ( गुरु उपदेश की ) अवहेलना करके जो शुभानुष्ठान और क्रियायें परलोक में हितकर होने के ख़याल से की जाती हैं वे वहां हितकारी सिद्ध नहीं होती । फलतः गुरु के उपदेशों का अवलम्बन करना नितान्त जरूरी है ॥२५॥
यो णिरोवयारी, अविणीयो गव्विओ णिरवणामो । साहुजणस्स गरहिओ, जणे वि वयणिज्जयं लहइ ॥२६॥ गुरुओं के आगे नतमस्तक न होनेवाले अहंकारी अविनीत एवं निरुपकारी मनुष्य की साधुओं से लेकर समाज तक बड़ी निन्दा होती है । अतएव जैन धर्म को स्वीकार करके विनीत बनना निहायत जरूरी है ||२६|| थोवेण वि सप्पुरिसा, सणं कुमारुव्व केइ बुज्झति । देहे खण परिहाणि, जं किर देवेहिं से कहियं ॥२७॥
कतिपय सत्पुरुषों को थोड़े निमित्त से ही बोध हो जाता है। जैसे क्षणभर में देह के रूप का नाश देखकर देवों के जरिये चक्रवत्त सनत्कुमार को ज्ञान हुआ था ॥२७॥
जइता लव सत्तम सुर, विमाण वासी वि परिवडंति सुरा । चिंतिज्जंतं सेसं, संसारे सासयं कयरं ॥२८॥