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जैन - रत्नसार
उत्कृष्ट चैत्यवन्दन करनेवाला प्रथम खमासमण देकर 'इरियावहियं ० १ तरस उत्तरी• अणत्थ० र कह एक लोगस्सका काउसग्ग करे पार कर प्रगट लोगस्स • कहे ।
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मध्यम चैत्यवन्दन में उपर्युक्त कायोत्सर्ग करने की आवश्यकता नहीं है । इसमें केवल तीन खमासमण देकर बायां घुटना ऊंचा करके दोनों हाथ हृदय पर घर दशों अंगुलियों को मिला जयउसामि० से चैत्यवन्दन करे। पीछे जं किंचि० णमुत्थुणं जावंति चेइआई० कह एक खमासमण दे तदनन्तर जावंत केविसाहू• उवसग्गहरं • जयवीयराय • अरिहंत चेइयाणं. ४ तथा अणत्थ• कहकर एक णमोक्कार का काउसग्ग करे - पार एक स्तुति बोले । फिर चमर डुलावे तथा एकाग्रचित्त और एकाग्र दृष्टि से प्रभु के अन्तरङ्ग गुणों से अपने गुणों की तुलना कर प्रभु के गुणों का चिन्तवन करे । अन्त में जिनमन्दिर से निकलते समय तीन बार 'आवस्सी' कहे । जिनराज पूजन विधि
प्रथम कही हुई रीति से मन्दिर का सर्व काम देख मुखशुद्धि कर स्नान करे । पीछे शुद्ध वस्त्र पहन एक पटके वस्त्र का उत्तरासन करे और उसी उत्तरासन की आठ तह कर नासिका का अग्रभाग ढक मुख को बांधे और निम्नलिखित सात प्रकार की शुद्धि करे ।
प्रथम शुद्धि - घर, दुकान, व्यापार, धन, स्त्री, पुत्र आदि का चिन्तवन न करना ।
द्वितीय शुद्धि-सत्य वचन बोलना ।
तृतीय शुद्धि - शरीर, हाथ या दृष्टि से भी सावद्य ( पाप ) व्यापार न करना और न दूसरे से कह कर कराना ।
चतुर्थ शुद्धि-- कटा हुआ, फटा हुआ, मलमूत्रादि में धारण किया
* अरिहन्त भगवान् की मूर्ति को चार निक्षेपों सहित पूजना तथा मानना शात्रों में लिखा है । निक्षेपे चार होते हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१- पृष्ठ ३२ - पृष्ठ ४ । ३--पृष्ठ ५। ४ --- पृष्ठ ७ ।
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