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जैन-रत्नसार
( कौन बन ढूढ री माई )
अब चारित्र भूषित श्री जिनफल से पूजोरी माई भविजन पूजोरी माई ॥ अ० ३ ॥ सामर्थ्य योग द्विभेद सन्यासी, धर्म योगअभिधायी । मोहादिकक्षय उपशम रूपे, कायोत्सर्ग लयलायी ॥ फलसें ४ ॥ योगतणी अड दिठ्ठीमांहे, धैर्यादि चार रहाई । निर्मल दर्शन बोधनोधामी, थिरदृष्टि सुहाई || फलसें ० ५ ॥ अल्पाहार निहार सुरभि गंध, कांता धर्म प्ररूपी । उपशम शान्ति ध्यान नो सागर, परमा दिनकर रूपी ॥ फ० ६ || आतम अनुभव शिवनो हेतू परा अपूरव भाई । क्षीणमोह गुणठाणे प्रकृति, क्षयकृत शेष ठहराई ॥ फ० ७ ॥ सत्तावन उदय गत भावें, अवेद्य संवेद्य नसाई । वेद्य संवेद्ये जिनचन्द्र ष्टि, अक्षयपद सुखदायी || फ० ८ ॥ ॥ श्लोक ॥
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सद्भावं जलधारकं स्थिरतरं भू धर्म आसास्थितः, चारित्रं परिणामकं सुखकरं बीजैक कल्पद्रुमः । अंकूरं अशुभं निवर्तितकरं ध्यानं व्रतं पंचकं, ज्ञानादिः फल पूर्णता फल शिवं चारित्र महमर्च्चये ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान सहिताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः फलं यजामहे स्वाहा ।
अर्घ पूजा
श्री सकल जिनचन्द्रं भक्तितोये यज॑ते, अविचल निधिकोशं दीक्षया प्राप्नुवते । त्रिकरण शुभयोगैः ध्याययन् मोक्षलक्ष्मी, अचल विमल सौख्यं सिद्ध भाजं भवन्ति ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः अर्घं यजामहे स्वाहा ।
केवलज्ञान पूजा ॥ दोहा ॥ ( छेद त्रिभंगी )
वंदू जिन पद पंकज सुखदाइ, कल्याणक सुखधाम । केवल कमला प्रभु प्रगट वरणणे, श्रवण मिले सुखकाम ॥ १ ॥ शिव संपति दायक सुरनर नायक, पूजित पद अभिराम ।