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पूजा - विभाग
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परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
नैवेद्य पूजा
॥ दोहा ॥
स्याद्वादथी ऊपनो, नित्यानित्य स्वभाव | षट् दर्शन नय संग्रही, आतम शुद्धनो भाव ॥१॥ (तेरी सूरत सजन मेरा जुहार रे )
प्रभु मूरति संयम तप मय रे, संयम तप मय नाण रे ॥ प्र० ॥ संयम उदय भया आश्रव तिमिर गया । आतम स्वभाव में रम रह्यो रे ॥ प्र० २ ॥ दुष्कर करण किया, भव दुख हरण भया । वर सादि तप कर कर्म जया रे ॥ प्र० ३ || इक्ष्वादि भोज्य लह्या, मोदक परमान्न गह्या । घेवर साकर द्राख पाक लह्या रे || प्र० ४ ॥ इन विधि पारन किया, भविजन मुक्त दिया । जिनचन्द्र अनुभव रस लह्या रे ॥ प्र० ५ ॥
॥ श्लोक ॥
अन्यालिप्त स्वरूप शुद्ध सहितं, अव्याप्ति निस्संगता, भव्यानां शुचि बोधकं हितकरं सद्भावना भावितं । नैपुण्यैः पुरुषैः सुगंध सहितैः सद्ज्ञान भिर्निर्मितं, सद्भोज्यै र्जिननायकं शुभमनैः, चारित्र भावं यजे ॥६॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेदज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहे वाहा |
फल पूजा ॥ दोहा ॥
चारित्र पद अति निर्मलो, अविचल सुखनों धाम |
सुरनर पूजो फल करी, वोध
वीजनो ठाम ||१||
॥ सोरठा ॥
श्री जिन पद आनन्द युत, फलसें पूजो भविक । चारित्र पद सुखकंद, ज्ञान नैन दाता अधिक ||२||
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