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जैन-रसार अति उत्कट समभावचरी । श्री जिनचन्द्र अनुभव रस, आस्वादी भविजन बोध विकाश करी ॥ सं० ४॥
॥ श्लोक ॥ नैर्मल्यं निज आत्मभाव घटितं, अज्ञान विध्वंसकं तत्त्वातत्त्व विकाशने बहुपटु, ज्ञानेश्चतुर्भियुतं । तैले वर्जित वत्रिं धूम ममलं, त्रैलोक्यमुद्दीपकं, दीपं श्री जिनमन्दिरे शिवपदे प्रज्वालनंक्रीयते ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं । परमात्मने चतुर्विशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्रीमजिनेन्द्राय चारित्र कल्याण केभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा ।
अक्षत पूजा
॥ दोहा॥ अत्युजल अक्षतकरी, मंगल अष्ट लिखाय । श्री जिन आगे भावसं, निरुपाधिक सुखदाय ॥१॥
(वंशी वाले हो कान मेरी गागर उतार ) मोह निवारी हो, प्रभु भव पार उतार, अब शरण संभार ॥ मो० ॥ कर्म निकंदन विविध प्रकार, नाण सहित जिनतप आधार ॥ मो० २॥
यम नियम आसन, नंदी प्राणायाम । भयत्रिकके चिद् भेदनो धाम ।। । मो० ३ ॥ प्रत्याहार ध्यान वेद बखाण, धारणवाण समाधि सुजाण । मो०
४॥ अद्वेष जिज्ञासा और सुश्रुष, श्रवण बोध मीमांशा पोष ॥ मो० ५ ॥ परिशुद्ध अप्रति पत्ति यथा क्रम, अंग भेद प्रवति जाणो सोष ॥ मो० ६ ॥ इत्यादिक महाप्राणायामकियो, मन जीवन कारण जगजयो । मो० ७ ॥ मोहे पिण प्राणायाम तणी नहिं शक्त, भावें मन जीवे जिन अनुरक्त ।।८।। अखय निधि दायक श्रीजिनचंद, यह शुद्ध ध्यान भविक आनन्द मो०९॥
॥श्लोक ॥ मोहच्छेदक ब्रह्म शस्त्र परमं सन्नाह चारित्रकं, त्रैलोक्ये भयदायक जगजनान् मिथ्यात्व विध्वंसकं । सौन्दयं सगुणं विशाल सुखदं त्राणैक देवे- : न्द्रवत, दीक्षां श्री जिननायकं अघ हरं नित्यक्षतैरर्चये ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं .