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पूजा-विभाग
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धूप पूजा
॥ दोहा॥ श्री जिन आगल धूपना, सरस सुगंधित सार । कृष्णागर मृगमद मिश्रित, सेल्हा रस घनसार ॥१॥
(चरण शरण चित लायो) चरण शरण मन भायो, जिनवर चरण० । चारित्र पद चित लायो जिनवर, दुष्ट कषायनो दाहक प्रभुजी, निर्मल संवर ध्यायो ॥ जि० २ ॥ देह निरागी स्व अप्रमादी, आतम गुणवर संसुख जायो। कर्म प्रकृति , विभाव विरागी, भविजन पाप पुलायो ॥ जि. ३ ॥ साध्यरसी निजतत्त्वं तन्मय, योग निरोध सुहायो । सप्तनयात्मक धर्म प्ररूपक, जिनचन्द्र सेवन पायो ॥ जि० ४ ॥
॥ श्लोक ॥ कर्माणं दहनं करोति सततं, चारित्र नामोद्भवं, तेनैवं परिहत्य भोग सकलं, चक्री तथा तीर्थकृत् । गृह्णात्पक्षय सौख्यदं गुणि गणं तीर्थः सदा सेवितं, तवंदे गर चन्दनः रसयुतैः धूपैस्सदा अर्चये ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थङ्कराय वेदज्ञान संयुक्ताय श्रीमजिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः धूपं यजामहे स्वाहा ।
दीपक पूजा
॥ दोहा ॥ दीप करो जिन आगले, आतम भाव विकास । भाव अहिंसक सागरा, इन्द्रिय निग्रह जास ॥१॥
( नयनी रो मोति थारी अजब वन्याहै चंपकरी) नंयम नम दश भेद धरी प्यारे चारित्र दुष्कर कर्महरी ।। न० ॥ अभिलारी निज आतम तत्वे. सर्व परिग्रह त्याग करी || स. २॥ दंग मगत शीनादि परीसह. अनुल अन्य उपसर्ग कर्ग, मन्दिर इबअप्रकनावारी. ध्यान मनाची न्याग हरी ॥ नं. ३॥ समयावर जीवादि बट्टन,
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