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जैन - रत्नसार
॥ श्लोक ॥
स्नात्वा श्री जगनायकं अघहरं संताप दूरीकरं, पर्यायैः स्वगुणं विशुद्धि हित देवेन्द्र वंद्यं विभुं । काश्मीरागर कुंकुमं मृगमदं श्रीखंडकैः कर्दमैः कर्मघ्नं तृतीयेजिनं शुभमनैश्चारित्र भावं यजे ॥८॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्री मज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः चन्दनं यजामहे स्वाहा |
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पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥
अनुभव रस में घूमता, चारित्रे जिनराय । विविध कुसुमकरि पूजिये, भवि शुभभाव धराय ॥१॥ ॥ राग सारंग ॥
शुचि आचरणा जिनवरा, भावदया अधिकार । वधावण सहु संचरता गुण धरा || शु० || जन उपगार रसिक शुभध्यानी, आश्रव रोधक निर्जरा ॥ शु० ३ ॥ जिन पारस कर लोहनी कञ्चन, तिन जिन आतम गुणकरा || शु० ॥ नयगम भंग निक्षेप प्ररूपक, स्वपरवर हित अनुसरा || शु० ५|| ज्ञान सागर उपशम रस धारी, स्वसाधन सुखसंचरा ॥ शु० ६ ॥ श्री जिनचन्द्र अखय अनुरागता, आतम सुख वर्द्धन करा ॥ शु० ७ ॥ ॥ श्लोक ॥
सम्यक्त्वे जिन आत्म तत्त्व सहितं स्याद्वाद मुद्रांकितं, सौगंध्यैः करैः नबमल्लिका च कर्णैः गुल्लुर्घसे वत्रिका | अंकाजैर्जल जादिभि: शुभ हर्म्यं सदा वासयन्, चारित्रं जननं शुचिं शिवपदे सत पुप्पकैरर्च्चये ||८|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय बेदज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा ।