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पूजा-विभाग
गंगा मगध तीर्थना, भावे जिनवर स्नान | करम सर्वनें धोववा, सौगंधित जल मान ||२|| ( ऐसी करूं इकतारी )
ऐसी पड़ी मोह जान प्रभु, संग त्याग करोगे || ए० ॥ निर्जरे पेषी स्वगुण गवेषी परगुण भोग तजी ने ॥ प्र० ३ ॥ श्री तीर्थंकर जान उदयवर चच्छर दान, देई ने ॥ प्र० ४ ॥ पुद्गल संगता जान अनित्यता, सुमति गुप्ति लेई ने ॥ प्र० ५ ॥ ताप समाबन निज गुण भावन, संजम रंग रंगी ने ॥ प्र० ६ ॥ चारित्र भूषण गुणगण वर्द्धन, पर्यव ज्ञान वरीने ॥ प्र० ७ ॥ श्री जिनचन्द्र अखय सुखकंदे, निर्मल योग धरीनें ॥ प्र० ८ ॥ ॥ श्लोक I
चारित्रं सुख सागरं निरुपमं मांगल्यकं शैवदं इन्द्राद्यापि निरंतरं बहुविधैः स्तुत्वाभजेत् वन्दतां । संसारे सकलं असार नितरां धारा धरो सन्निर्भ, दीक्षायां स्नपयाम्यहं शुचि जलैः ज्ञात्वा जिनाधीश कान ||९|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्री मज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः जलं यजामहे स्वाहा |
चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥
मृग मद सुर चन्दन करी, विलेपन सुरपति कीध | भव ताप सब दूर कर, निरु पाधिक सुख लीध ॥१॥ ( जमुना के नीरे तीर वाज तेरा विछुआ )
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श्री जिनराज परम गुणरागी, पर पुद्गल अनुरागता त्यागी ॥ श्री० २ ॥ समता रस संपूरण सागर, आश्रव रोधक संवर जागी || श्री० ३ ॥
ज्ञान ध्यान अनुपम त्रय भंगी, अनुभव उत्कट रस अनुरंगी || श्री० ४ ॥ चरण करण धर सप्तति अंगी, राग द्वेष परमाद विभंगी ॥ श्री० ५ ॥ भोज्यादि व्यवहारें भोगी, निर्मल ज्ञान थी निश्चय योगी ॥ श्री० ६ ॥ श्री जिनचन्द्र निज गुण अनुयोगी, निर्मम निग्रन्थ स्व सद्भोगी || श्री० ७ ||
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