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जैन-रत्नसार हर्षद ॥ प्र. २ ॥ तहां विमल पयसापूर्ण विभृत्, कमल मधुकर सेव ।। वचन चातक विरह सूचक, करे दादुर टेव ॥ तरु श्रेणि मंडित कुसुम । संचित, फल निचय भूएव । वैडूर्य मणिरिव अवनि राजे, इन्द्र गोप मणेव ॥ प्र० ३ ॥ श्रीकार जंवूक आम्र श्रीफल दाडिमादिक युक्त । अंजीर वंजीर नासपाती, सेववी जहां उक्त । नारंग करणा नूत नौजा भेद भाव अनुक्त ॥ मधु माधवी वरवेल शोभे, सरस द्राक्षा भुक्त ॥ प्र. ४॥ सुर रमण कानन बीच चंचिद, रयन खंभ अनूप । मणि रतन मंडित सुरंग झूलन, शोभ सुन्दर भूप ॥ तिहां मनुज सुरपति सचि मनोहर, सज सिंगार सरूप । जिनचन्द्र भक्ति अखय झूलन, गीत गान निरूप ॥ प्र० ५ ॥
॥ श्लोक ॥ महा कारीणामति कटु विपाकं विनशयन, सुपक्वं श्रीकारं सुरभि फल भावैः विकसितं । नवीनं सद्शौच्यं परम सकलं मंगल मिदं, जिनां
जन्मा वस्था मतुल फल मांगल्य विदधे ॥६॥ ॐ हीं परमात्मने ज्ञानॐ त्रय सहिताय परोपकारक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः फलं यजामहे स्वाहा। अर्घ पूजा
॥ श्लोक ॥ अक्षय पद निविषं जैनचन्द्रं यजंते, निधि उदयव्याप्तं जन्म कल्याण भावं । प्रति दिवसमनन्तं पूर्णमानन्द भूतं, प्रविश अचल सौख्यं ज्ञान वृद्धि करोति ॥१॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः अधं यजामहे स्वाहा। चारित्र कल्याणक पूजा
जल पूजा
॥ दोहा ॥ गुण सागर चारित्रने, प्रणमो शुद्ध स्वभाव । जिनचन्द्र अक्षय आदरें, त्यागें पर गुण भाव ॥१॥
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