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जैन-रत्नसार ढींकण बिच्छू तिड्डी भमरा भमरिया, कौंता बग खड मांकणी ए ॥३३॥ इम चौरेन्द्री जीव जे मैं दुहव्या, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए। जल मां नाखी जाल, जलचर दुहव्यां वन मां मृग संतापिया ए ॥३४॥ पीड्या,
पंखी जीव, पाडी पास मां पोपट घाल्यां पांजरा ए। इम पंचेन्द्री जीव जे PL मैं दुहव्यां, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए ॥३५॥
(प्राणी वाणी हित करी जी ) क्रोध लोभ भय हास थी जी, बोला वचन असत्य । कूड करी धन । पारकां जी, लीधा जेह अदत्त रे ॥ जिन जी मिच्छामि दुक्कड़ आज, तुम्ह। साखे महाराज रे । जिनजी मिच्छामि दुक्कड़, आज देइ सारूं काज रे॥ जि० ३६ ॥ देव मनुष्य तिर्यच ना जी, मैथुन सेव्या जेह । विषया रस लंपट पणे जी, धणूं विटंव्यो देह रे ॥ जि० ३७ ॥ परिग्रह नी ममता करी जी, भव भव मेली आथ । जेह जिहां तेह तिहां रही जी, कोइय न आवे साथ रे ॥ जि० ३८ ॥ रयणी भोजन जे करया जी, कीधा भक्ष अभक्ष । रसना रसनी लाल, जी, पाप करयां परतक्ष रे ॥ जि. ३९ ॥ व्रत लेइ विसारिया जी, वलि भांग्या पञ्चक्खाण । कपट हेतु किरिया करी जी, कीधा आप वखाण रे ॥ जि० ४० ॥ त्रिण ढाले आठे दुहे जी, आलोया अतिचार । शिवगति आराधन तनो जी, ए पहिलो अधिकार रे ॥जि०४॥
(सहेलडी जी) पंच महाव्रत आदरो सहेलडी रे, अथवा ल्यो व्रत बार रे । यथाशक्ति व्रत आदरी सहेलडी, पाली निरती चार तो ॥४२॥ व्रत लिया संभारिये * सहेलडी, हियडे धरीय विचार तो। शिवगति आराधन तणो सहेलडी,
ए बीजो अधिकार तो ॥४३॥ जीव सभी खमाविये सहेलडी, योनि चौरासी * लाख तो । मन शुद्धे करो खामणा सहेलडी, कोई सं रोषन राख तो॥४॥
| सर्व मित्र करि चिंतवो सहेलडी, कोइय न जाणो शत्रु तो। राग द्वेष इम * परिहरी सहेलडी, कीजे जन्म पवित्र तो ॥४५॥ साहमी संघ खमाविये
सहेलडी, जे उवनी अप्रीत तो। सज्जन कुटुम्ब करी खामणा सहेलडी,
Titlanti-listinika
nkshik-KATHAKARENTI