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___जैन-रत्नसार
जावंत केवि साहू सूत्र जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥१॥
परमेष्ठि-नमस्कार नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः ॥
. उवसग्गहरं-स्तोत्र* उवसग्गहरं-पासं, पासं वंदामि कम्म-घणमुक्कं । विसहर-विस-णिण्णासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ॥१॥ विसहर-फुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह-रोग-मारी-दुइ-जरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दुरे मंतो, तुज्झ पणामोवि बहुफलो होइ । णर-तिरिएसुवि जीवा पावंति ण दुक्खदोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मते लहे, चिंतामणि कम्पपाय वन्भहिए। पाबंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इस संथुओ महायस ! भत्तिब्भर-निब्भरेण हिअएण । ता देव दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥५॥
जय वीयराय सूत्र जय वीयराय ! जगगुरु !, होउ ममं तुह पभावओ भयवं ! भव-निव्वेओ मग्गा-गुसारिया इट्टफल-सिद्धी ॥१॥
* यह स्तोत्र चतुर्दशपूर्वधारी आचार्य भद्रबाहुजी का बनाया हुआ है जिसका प्रमाण कथाकार महाशय इस प्रकार देते हैं :उपसर्गहरस्तोत्रं कृतं श्री भद्रबाहुना । ज्ञानादित्येनं संघाय शान्तये मङ्गलाय च ॥
अर्थात् :-उपसर्गहरस्तोत्र श्री भद्रबाहु आचार्य जी ने संघ के मङ्गल व शान्ति के लिये बनाया।
जय वीयराय, लोग विरुद्धचाभो इन दो गाथाओं से चैत्यवन्दन के अन्त में प्रार्थना म करने की परम्परा प्राचीन समय से है, जिसकी सिद्धि श्री हरिभद्रसूरिकृत चतुर्थ पश्चाशक गाथा । ३२-३४ से होती है।
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