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प्रमत्रत्रतत्र ग्रनल्स्प्रनल्यान्ट्रन्यूवल्ललनवाला
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जैन-रत्नसार अष्टम श्री चारित्रपद पूजा
॥ दोहा ॥ अष्टम पद चारित्रनो, पूजो धरी उम्मेद । पूजत अनुभवरस मिले, पातिक होय उच्छेद ॥१॥
॥ काव्य ॥ . सुसंबरं मोह गिरोहसारं, पंचप्पयारं विगयाइयारं । मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं, पालेहणिच्चं पिहु सच्चरित्तं ॥२॥ आराहिया खंडिअ सक्कियस्स, णमो णमो संजम वीरियरस । सम्भावणासंग विवट्टिअस्स, णिव्याणदाणाइ समुज्जयस्स ॥ वलि ज्ञानफलते धरिये सुरंगे, निरासंसता द्वार रोधे प्रसंगे। भवांभोधि संतारणे यान तुल्यं, धरूं तेह चारित्र अप्राप्त मूल्यं ॥३॥ हुई जासु महिमा थकी रंक राजा, वलि द्वादशांगी भणी होय ताजा । बलिपापरूपोपि निप्पाप थायें, थई सिद्ध ते कर्मने पार जायें ॥४॥
॥ ढाल ॥ चारित्रगुण वलि वलि नमो, तत्त्वरमण जसु मूलो जी। पर रमणीयपणो टले, सकल सिद्धि अनुकूलो जी ॥चा० ५।।
॥चाल ॥ प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम तत्त्व थिरता दममयी, शुचि परम खंति । मुनिन्द सेपद पंच संवर उपचयी ॥ सामायिकादिक भेद धरमें यथाख्याते पूर्णता, अषीय अकुलस अमल उज्जल काम कसमल चूर्णता ॥६॥
॥ ढाल | देशविरत ने सर्वविरत जे, ग्रही यतिने अभिराम । ते चारित्र जगत् जयवन्तो कीजे तासु प्रणामे रे ॥ भ० सि० ७ ॥ तृण परे जे षखंड सुख छंडी, चक्रवर्त पिण वरियो, ते चारित्र अखय सुखकारण, ते मैं मनमाहि धरियो रे ॥ भ० सि० ८ ॥ हुआ रंक पणे जे आदर, पूजत इन्दनरिन्द ॥ अशरण शरण चरण ते वाहूं, वरिओ ज्ञान आनन्दे रे ॥ भ० सि. ९॥ बार मास पर्यायें जेहने, अनुत्तर सुख अतिक्रमिये । शुक्ल शकल
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