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जैन-रत्नसार
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मके जो नगरी, थास्ये अवर प्रकार । तिण सागर अन्तर, काल गयो बहु जाम दक्षिण दिसि उत्तम, कुन्ती नगरी ठाम, कुन्ती नगरी जैन बसे, जहां श्रावक सागरदत्त, बाहण सात बहे व्यापारे पोते पर घल वित्त, अन्य दिवस सायर बिच बहतां जहां छे थंभण पास, ऊपरि आव्या थंभ्या बाहण ने सविथया उदास ॥८॥ मास दिवस बाणी थई अम्बर सुरराय, प्रतिमा थंभण पाशनी सायर जलधि माहिं सुर प्रगट्यो जिण सासणे, सुर कहे बांणी एह प्रतिमा भाव तूं प्रगटी करो जइ जैन कुन्ती नगर जिण हर मूल नायक ए धरो, ते बिम्ब कुन्ती मांहि थाप्यो, कहे वह श्रावक तहां ए सकल तीरथ नाथ समरथ पुण्य योग मिल्यो इहां ॥९॥ इण अवसर दस उर पुरइ पालत्तइ सूर, विद्या बल अम्बर भमें अतिशय भरपूर, तीरथ जाय जिण हरनमें, तेन में सेजा प्रमुख गिरिवर सदा पाखी पारने पाली ताने रह्या थाणे नागारजुन जोगी पने, ते धातु सोवन काज धमतां मास छडे रस करे, करि कोप भैरव बीर नाखें रूप पंखी नो धरे ॥१०॥ तिण पालन्ते सूरिने जाण्यो एह महन्त, पूछेको सुर दाखवें अतिशय गुणवन्त, कृपा करि मुझ भाखवो
गुरु तेह भाखे जेह थंभे उपद्रव सुर नर तणो, तिण कर यो कुन्तीने प्रसादे | पास छ प्रभु थंभणो, कुण यक्ष बीर बेताल व्यन्तर सहु तसू सेवा करे, तेहनी दृष्टि साधि विद्या जेम तुम वंछित सरे ॥११॥
॥ ढाल ॥ विद्या पिण आकर्षणी हुन्ति जोगी ने पास, ते प्रतिमा आणी तिहां थापी निज आवास, सोवन रस सीधो जिहां, रस तिहां सीधो सुजस लीधो, नदी सेढ़ीने तटे । गुरुने जणाव्यो तिण कहाव्यो, बिम्ब भंडारयो घटे, इणकाल धरम सुथान थोड़ा हुसी मलेच्छा इण इहां खाखरातले सेढिकातीरे बिम्ब भंडार यो तिहां ॥१२॥
॥ ढाल ॥ मेघ आगम सही नदी उल्लटि वही बेलुका बिम्ब ऊपर बले ए, तेण भुंइ धेनूचरे, खार सुरही झरे चीकणी, भूमि खाखर तले ए, केतला
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