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आरती-विभाग
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आतम
मुनि सुव्रत, नमि नेमि श्री कारी । पार्श्व जिनेश्वर वीर जिनंदा, हितकारी ॥ जय० ॥ इण विधि आरती जे भवि करसी, भवसागर तिरसी । श्रीजिनचंद अखय पद फरसी शिव कमला वरसी ॥ जय० ५ ॥ शासन पति आरती
हां करो आरती प्रभु की रस में || हां करो ॥ वीस स्थानक तप कर तीजे भव । हुए तीरथ पति सुसमें ॥ हां करो० १ ॥ स्वम चतुर्दश चतुर्दश मातनिहारे । देव देवेन्द्र हुलसमें ॥ जिन अभिमुख हुय शस्तव करि । सुरवर सबहि हरषमें || हां करो० २ ॥ इन्द्र हुकुमसे धनद देवता, भरत खजाने उसमें तीन भुवनमें हरष भयो है, रोम रोम नस नस में ॥ हां करो० ३ ॥ सरव कल्याणक आरती करके, किये कर्मकूं नष्टमें । दास चतुर के बंछित फल गये, अब नहीं संशय इसमें || हां करो० ४ ॥
पञ्च ज्ञान आरती
जय जय आरती ज्ञान दिनंदा, अनुभव पद पावन सुख कंदा ॥ जय० १ || तीन जगत के भाव प्रकाशक, पूरण प्रभुता परम अमंदा ॥ जय० २ ॥ मति श्रुति अवधि और मन पर्यव, केवल काटे सब दुख दंदा ॥ जय० ३ || भव जल पार उतारण तारण, सेवो ध्याओ भविजन वृन्दा ॥ जय० ४ ॥ शिवपुर पंथ प्रगट ए सीधा, चौमुख भाखे श्री जिन चन्दा ॥ जय० ५|| अविचल राज मिले याही सों, चिदानंद मिलें तेज अमंदा ॥ जय० ६ ॥ पञ्च ज्ञान आरती
ॐ
जय जग सुखकारी, वारी जय राम पद धारी । आरती करूं सहकारी, जय जग सुखकारी ॥ जय० ॥ अष्टाविंशति भेद करी ने, मति ज्ञाने राजे ॥ बारी मति ज्ञाने राजे || ध्यावत पूजत भविजन केरा, भव संकट भाजे ॥ जय० १ ॥ भेद चतुर्दश अथवा विंशति, प्रवचन प्रति दाखे ॥ प्रव० ॥ श्री श्रुतज्ञान की महिमा जिनवर, स्वमुख थी भाखे ॥ जय० २ ॥ रूपी अन्य विषयी मर्यादा, करि अवधी सोहे || करि० || भेद षट्क संख्याती