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जैन-रत्नसार
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पाठक भवतारी ॥ जय० ३ ॥ सम दम रूप सकल गुण ज्ञायक, मोटा मुनिराया | दरसन ज्ञान सदा जयकारक, संजम तपभाया ॥ जय० ४ ॥ नवपद सार परम गुरु भाखे, सिद्धचक्र सुखकारी । ए भव परभव रिद्धि सिद्धि दायक भवसागर वारी ॥ जय० ५ ॥ करजोड़ी सेवक गुण गावें, मन वंछित फल पावें । श्री जिनचन्द अखय पद पूजत, शिव कमला पावें
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॥ जय ० ६ ॥
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"विंशति स्थानक आरती"
॥ जीया चतुर सुजान नवपद के गुण गाय रे ॥
पिया विंशति यान मंगल आरती गाय रे ॥ आरती० ॥ सुमति प्रिया कहे चेतन पतिको, निसुण वचन मन भाय रे || पि ० १ || यदि निजगुण परिणति तुम चहिये तिनको एह उपाय रे || अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक साधु सकल समुदाय रे || पि० २ ॥ इत्यादिक विंशति पद समरण, भव भय हरण विधाय रे । एह आरती दुरति वारती, अनुपम सुरसुख दायरे ॥ पि० ३ ॥ जैसे भगतें करत आरती, सकल सुरासुर राय रे । तैसे भवितुम करोआरती, ए पद गुण चितलाय रे ॥ पि० ४ ॥ पंच प्रदीप से करत आरती, जे नित चित्त उलसाय रे । ते लही पंच चिदानंद घनता, अंचल अमर चढ़ पाय रे । पि० ५ ॥ पंच प्रदीप अखंडित जोते, दुरमति तिमिर विलाय रे । एह आरती तुरत तारती, भव जल निपतत धाय रे || पि०६ पद जिनहर्ष ए करणी, मन हरणी करवाय रे । चन्द्र विमल शिव सिद्धि निद्धि धरणी वरणी किनविध जाय रे ॥ पि० ७ ॥ ऋषि मंडल आरती
जय जय जिनराजा, वारी जय जय जिनराजा । आरती करूं शिवकाजा भव भय दुख भाजा ॥ जय० १ ॥ ऋषभ अजित सम्भव जिनराया, अभिनंदन सुमति । पद्म सुपारश चंद्रा प्रभु सें, दूर हुबे कुमति ॥ जय० २ || सुविधि शीतल श्रेयांस सवाई, करि बारम जिनकी । विमल अनंत धरम प्रभु शांति, हर आरंति तन की ॥ जय० ३ ॥ कुंथुनाथ अर मल्लि