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पूजा-विभाग
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समकित कारज, निज गुण संपति पर नमस्यें रे श्रीजिन चन्द्रनि किरपाथास्यें, तो निश्चय भवतरस्यें रे ॥ क० ४ ॥
॥ श्लोक ॥
अवधि भी श्रुतिभाव समन्वितैः, कठिन कर्म वियोग समुद्रवैः । सुकुसुमैः प्रकरोम्यहमर्च्चनं, जिनजिनं च्यवनं तवहेतवे ॥ ५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥
धूप पूजा
॥ दोहा ॥
पूजे जे जन दाब ।
सरस सुगंधित धूप सूं, करम काष्ट सब दाह के, पामें निरमल भाव ॥१॥ ( सब अरति मथन मुदार धूपं )
सब करम दहन सुगंध धूपं, कृष्णागर लो बांणरे । तगर मृग मद कपूर केशर, मिश्रित सेलारस मांन रे ॥ स० २ || आर्त्त रौद्र बिध्वंस कारण, धरम शुकल ध्यान पाय रे । आतम गुण निष्पन्न हेतू, प्रभु सुगंध मन भाय रे || श्री जिन चंद्र सुख दाय रे, मंगल परम विधाय रे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥
प्रबल मोह महा रिपु भस्म कृत् त्रिभुवने सकलात्ति निकंद कृत् । सुरभि गंध दशांगज क्षेपकैः जिन जिनंच्यवनं अहमर्चये ||४|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः धूपं यजामहे
स्वाहा ॥
दीपक पूजा ॥ दोहा ॥
दीपक शुभ सूचक सदा, गर्भ स्थिति जिनराय ।
भाव सहित दीपक करे, मोह तिमिर मिट जाय ॥१॥ ( जयकारी जिनराज )
भाव दीपक जिनराय ज्ञान प्रकाशी रे, तत्वा तत्व स्वभाव,
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विभाव