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________________ पूजा-विभाग ४०६ समकित कारज, निज गुण संपति पर नमस्यें रे श्रीजिन चन्द्रनि किरपाथास्यें, तो निश्चय भवतरस्यें रे ॥ क० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ अवधि भी श्रुतिभाव समन्वितैः, कठिन कर्म वियोग समुद्रवैः । सुकुसुमैः प्रकरोम्यहमर्च्चनं, जिनजिनं च्यवनं तवहेतवे ॥ ५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥ धूप पूजा ॥ दोहा ॥ पूजे जे जन दाब । सरस सुगंधित धूप सूं, करम काष्ट सब दाह के, पामें निरमल भाव ॥१॥ ( सब अरति मथन मुदार धूपं ) सब करम दहन सुगंध धूपं, कृष्णागर लो बांणरे । तगर मृग मद कपूर केशर, मिश्रित सेलारस मांन रे ॥ स० २ || आर्त्त रौद्र बिध्वंस कारण, धरम शुकल ध्यान पाय रे । आतम गुण निष्पन्न हेतू, प्रभु सुगंध मन भाय रे || श्री जिन चंद्र सुख दाय रे, मंगल परम विधाय रे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ प्रबल मोह महा रिपु भस्म कृत् त्रिभुवने सकलात्ति निकंद कृत् । सुरभि गंध दशांगज क्षेपकैः जिन जिनंच्यवनं अहमर्चये ||४|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः धूपं यजामहे स्वाहा ॥ दीपक पूजा ॥ दोहा ॥ दीपक शुभ सूचक सदा, गर्भ स्थिति जिनराय । भाव सहित दीपक करे, मोह तिमिर मिट जाय ॥१॥ ( जयकारी जिनराज ) भाव दीपक जिनराय ज्ञान प्रकाशी रे, तत्वा तत्व स्वभाव, 52 विभाव
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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