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जैन-रनसार
मनमन
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मनमनप्रकल्प
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विनाशी रे । अनुभव रस आस्वाद क्षायक भावे रे, मन मन्दिर उजमाल लोक दिखावे रे ॥२॥ जिनवर दर्शन होय मुझने पहि लं रे, तो थास्यं हूँ धन्य जन्म संभालं रे, जिनचन्द्र छे वीतराग, तो पिण करस्य रे, महिर सेवक निज जांण दर्शन देस्य रे ॥३॥
॥ श्लोक ॥ सकल पुद्गल भाव विकाशकं, तिमिर पाप वितान विनाशकं । भविजनान्शुभसूचक दीपकं, जिनजिनां भवने प्रकरोम्यहं ॥४॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा ॥
अक्षत पूजा
॥ दोहा॥ अत्युजल अक्षत सरस, मंगल अति सुखकार ।
करसी जे जिन आगले, पामें निज गुणसार ॥१॥ ( मेरो मनड़ो हरख्यो प्रभु पास साम रे मैं कैसे नमूं सुरपरिया)
मेरो मनड़ो लग्यो जिनराज चरण में, दर्शन लहिया कैसे ॥च० २॥ काल अनन्त भम्यों दर्शन विन, योग करण भरमइया ॥ च० ३ ॥ अनायासतें नर भव पायो, पावनरूप वधइया ॥च०४॥ अब टुक मेहर नज़र प्रभु कीजे, सप्तक्षय सुध पइया । च० ५॥ श्रीजिनचन्द्र अखय पद कारण, चरण कमल चल जइया ॥ च० ६ ॥
॥ श्लोक ॥ विमल दर्शन शुद्ध समन्वितं, जिनपतिं करुणा रस सागरं । परम मंगल मक्षत मंगलं, जिन जिनां च्यवनंअहमर्चये ॥७॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थकरणां च्यवन कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
नैवेद्य पूजा
॥ दोहा॥ भाव भगत थी ढोकतां, नैवेद्य अनेक प्रकार । गर्भस्थित जिन आगले, पामे ऋद्धि भंडार ॥१॥
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