SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SEENohlotakoseli A aslesaliactatiotatoeskarinakitabkoonlottarashtclostaleakistasleshtotkothashtatre ----- ---rrrrrr- --- --- ---- - --- latestnalisailialelaikiktakal a k ४०८ जैन-रनसार ................ ... जिनेश्वर वेद षट् , सकल तीर्थ जलैः स्नपयाम्यहं ॥१०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यो जलं यजामहे स्वाहा । चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥ चन्दन सं जिन पूजतां, मिटे कर्म धन ताप । च्यवन कल्याणक ध्यावतां, बांधे समकित आप ॥१॥ (श्री सिखर गिरि भेट्या रे) . तुझ दर्शनके कामी रे, सुरनर मुनिराया। अट्ठावीसें मति परकाशें, चवदवीसे श्रुतधारा ॥ षट् मेंदें अवधि मन भावें, असंख्यात भेद विचारा रे ॥ सु० २ ॥ तीन ज्ञान थी गर्ने आया, त्रिभुवन जन सुखदाया । चन्दन सूं जिनचन्द्र कू पूजित, आतम गुण उलसाया रे ॥ सु. ३ ॥ ॥ श्लोक ॥ प्रवल कर्म विताप निवारकं, सरस शीतल भाव वितीर्णकं । मृगमदा गर चन्दन कुंकुमैः, विमलभाव द्युतैः च्यवनं यजे ॥४॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यो चन्दनं यजामहे a HARRESHAME d ikalda i akshashikalakaiakat स्वाहा । पुष्प पूजा ॥दोहा॥ पञ्चवरण के फूल सू, च्यवन स्थित जिनराय । निश दिन पूजो भाव तूं, दर्शन शुद्ध उपाय ॥१॥ ॥ निरमोहिया तो तूं के दिन बोलूं रे॥ कवथारये दर्शन प्रभु तूरे, जब निज संपत्ति परिणमस्ये रे ॥क० २॥ काल अनन्त निगोदमें भमियों, भूम्यादि संखकर संखेस्य रे ॥ क० ३ ॥ विकलेन्द्री माहे काल संख्याते, नर तिरि माहे पिण धरस्य रे ॥ इत्यादिक . भव संतति वारक, कारण थी काज विकस्ये रे ॥ क० ४ ॥ प्रभु कारण थी
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy