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जैन-रनसार
................ ... जिनेश्वर वेद षट् , सकल तीर्थ जलैः स्नपयाम्यहं ॥१०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यो जलं यजामहे स्वाहा ।
चन्दन पूजा
॥ दोहा ॥ चन्दन सं जिन पूजतां, मिटे कर्म धन ताप । च्यवन कल्याणक ध्यावतां, बांधे समकित आप ॥१॥
(श्री सिखर गिरि भेट्या रे) . तुझ दर्शनके कामी रे, सुरनर मुनिराया। अट्ठावीसें मति परकाशें, चवदवीसे श्रुतधारा ॥ षट् मेंदें अवधि मन भावें, असंख्यात भेद विचारा रे ॥ सु० २ ॥ तीन ज्ञान थी गर्ने आया, त्रिभुवन जन सुखदाया । चन्दन सूं जिनचन्द्र कू पूजित, आतम गुण उलसाया रे ॥ सु. ३ ॥
॥ श्लोक ॥ प्रवल कर्म विताप निवारकं, सरस शीतल भाव वितीर्णकं । मृगमदा गर चन्दन कुंकुमैः, विमलभाव द्युतैः च्यवनं यजे ॥४॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यो चन्दनं यजामहे
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स्वाहा ।
पुष्प पूजा
॥दोहा॥ पञ्चवरण के फूल सू, च्यवन स्थित जिनराय । निश दिन पूजो भाव तूं, दर्शन शुद्ध उपाय ॥१॥
॥ निरमोहिया तो तूं के दिन बोलूं रे॥ कवथारये दर्शन प्रभु तूरे, जब निज संपत्ति परिणमस्ये रे ॥क० २॥ काल अनन्त निगोदमें भमियों, भूम्यादि संखकर संखेस्य रे ॥ क० ३ ॥
विकलेन्द्री माहे काल संख्याते, नर तिरि माहे पिण धरस्य रे ॥ इत्यादिक . भव संतति वारक, कारण थी काज विकस्ये रे ॥ क० ४ ॥ प्रभु कारण थी