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जैन - रत्नसार
ना रहे पिता अरु माई || सांइयां० २ ॥ मगसर वदि दशमी आई, इन्द्रादिक इन्हें बधाई । अब संयम लेते सांइयां, सब जीवको सुखदाई ॥ सांइयां ० ||३|| यह संयम मारग बँका, नहिं इसमें कुछ भी शंका | यह नहीं सोवनी लंका, कइ कष्ट परे दुखदाई || सांइयां ० ॥ ४॥ संसार सकल दुखखानी, कइ मरे जा रहे प्रानी । यह सांची विधि तुम जानी, इस कारण चले दुराई ॥ सांइयां० || ५ || प्रभु संयम लेकर भारी, सचि कर्म समिध कूंजारी | कहे दास चतुर बलिहारी, कर जोड़ि वीर जिन राई || सांइयां ० ॥६॥
॥ इन्द्रसभा ॥
अष्ट कर्म वनदाह करन धन, है तप अग्नि समान | पिंडपात्र करि धूप करेसो, पावे निर्मल ज्ञान ॥७॥
( रागनी एमन कल्याण, धीमें त्रिताले की ठुमरी ) तूं ईश्वर प्राण पति मेरा, और न कोई सहायक मेरा ॥ तूं ही जगतारक दुःख निवारक, असरन जनको सरन है तेरा । कृष्णागुरु अरु मृगमद अंबर, लेइ घनसार लोबान सु गहेरा || तूं० ८ ॥ धूप करों प्रभु सम्मुख तोरे, सरस सुगंध अति सुख देरा । दास चतुर कूं पार उतारो, मैं हूँ प्रभु शरणागत तेरा ॥ तूं० ९ ॥
॥ श्लोक ॥
वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महतो, वीरंबुधाः संश्रिता । बीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः । वीराचीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।