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जैन-रवसार ज्ञान प्रधान । इग्यारस मगसिर सुदि उत्तम उरधार, ए पञ्चकल्याणक समरीजे जयकार ॥१॥ इग्यारे अनुपम एक अधिक गुणधार, इग्यारे बारे प्रतिमा देसक धार । इग्यारे दुगुणा दोय अधिक जिनराय, मन सूधे सेव्यां सब संकट मिट जाय ॥२॥ जिहां बरस इग्यारे कीजे व्रत उपवास, बलि
गुणनो गुणिये विधि सेती सुविलास । निज आगम वाणी जाणी जगत। | प्रधान, इक चित्त आराधो साधो सिह विधान ॥३॥ सुर असुर भुवण वण
सम्यग्दर्शन वन्त, जिनचन्द्र सुसेवक वेयावच्च करन्त । श्री संघ सकल में आराधक बहु जाण, जिन शासन देवी देव करो कल्याण ॥४॥
मौन एकादशी स्तुति अरस्य प्रवज्या नमिजिनपतेर्ज्ञानमतुलम् , तथा मल्लेर्जन्म व्रतमपमलं केवलमलम् । वलक्षैकादश्यां सहसि लसदुद्दाममहसि, क्षितौ कल्याणानां क्षपति विपदः पंचकमदः ॥१॥ सुपर्वेन्द्र श्रेण्यागमनगमनैर्भूमि वलयं, सदा खर्गत्येवा हमहमिकया यत्र सलयं । जिनानामप्यायुः क्षणमति सुखं नारक सदः, क्षिती० ॥२॥ जिना एवं यानि प्रणिजगदुरात्मीयसमये, फलं यत्कर्तृणामिति च विदितं शुद्ध समये । अनिष्टारिष्टानां क्षितिरनुभवेयुर्वहुमुदः, क्षितौ० ॥३॥ सुरा सेन्द्राः सर्वे सकल जिनचन्द्र प्रमुदिता, स्तथा च ज्योतिकाखिल भवननाथा समुदिताः । तपो यत्कर्तृणां विदधति सुखम् विस्मित हृदः, क्षितौ० ॥४॥
चतुर्दशी स्तुति अविरल कमल गवल मुक्ताफल कुवलय कनक भासूरं । परिमल बहुल कमलदल कोमल पदतललुलित नरेश्वरम् ॥ त्रिभुवन भवन सुदीप्त प्रदीपक मणि कलिका विमल केवलम् । नव नव युगल जलधि परिमित जिनवर निकरं नमाम्यहम् ॥१॥ व्यन्तर नगर रूचिक वैमानिक कुलगिरि कुण्ड सकुण्डले । तारक मेरु जलधि नन्दीसर गिरि गजदन्त सुमण्डले ॥ वक्षस्कार भवन वन जोतिष कुरू वैताढ्य कुञ्जिगा । त्रिजगति जयति । विदित शाश्वत जिन नतिततिरिह मोह पारगा ॥२॥ श्रुत रत्लैक जलधि मधु
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