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जैन-रत्नसार .... .......... ... .....
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गुरु वचन सानन्द मन से, उन्हें गारण्टी है निखिल सुख निर्वाण पद की । गुरो ! खामी मेरे मन सदन में शान्ति भरदो, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥४॥ चिदात्मन् जा जा के नगर वसती ग्राम जन
में, दिखाया लोगों को परम पद का मार्ग तुमने । मुझे भी आशा है। 1 चरम गति की नाथ ! तुमसे, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! 1 करदो ॥५॥ बिछाया माया ने सृजन करके जाल जग का, हगों के होते
भी मनुज वन अंधे फंस रहे । तुम्हारी सेवायें मन नयन का मञ्जु सुरमा, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अव आचार्य ! करदो ॥६॥ सुनाता मैं स्वामिन् ! तव गुण कथा जैन कुल में, तुम्हें ध्याता जाता प्रणत शिर है रत्न जिन ! में । तुम्हारा चेला है सफल करना सूर्यमल को, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥७॥ प्रतीक्षा भीक्षा है मम, तव परीक्षा समयकी, तुम्हारा ही सारा प्रभुवर ! सहारा भुवन में । कहो, बोलो, होगी परमपद की प्राप्ति मुझको, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥८॥
जिनरत्नसूरि स्तवन रत्न सूरी गुरू, शिष्य जिनचन्द के । अधिकारी गुरूजी, शिष्य जिनचन्द के ॥१॥ खरतर गच्छ में गणधर साहब, रत्न सूरि गुरु ध्यानी ॥ शिष्य. २ ॥ सम्वत् उन्नीसौ इकतालीसे, बैठे गद्दी शुभकारी ॥शिष्य०३|| पैंतालीस आगमों के ज्ञाता, सूत्र अरथ विस्तारी ॥ शिष्य. ४ ॥ पञ्चास्तिकाय षट् द्रव्य के बेत्ता, शुद्ध धरम हितकारी ॥ शिष्य. ५॥ टीका नियुक्ति भाष्य चूरणी, पञ्चाङ्गी अधिकारी ॥ शिष्य. ६ ॥ सम्वत् उन्नीसौ ब्यानवे में, बैशाख बदी अति भारी ॥ शिष्य० ७ ॥ अमावस के दिन स्वर्ग सिधारे, संघ में हुवा दुख भारी ॥ शिष्य. ८॥ सूरजमल्ल गुरू के गुण गावें, धन धन जाऊं बलिहारी ॥ शिष्य. ९॥
॥ इति स्तवन विभाग ॥
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