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जैन-रत्नसार जोयण ऊंचो अछे, शत्रुञ्जय तीरथ सार ॥५॥ सात हाथ छठे आरे, पिहुलो परवत एह । ऊंचो होसी सौ धनुष, सासतो तीरथ एह ॥६॥
॥ ढाल ॥ केवल ज्ञानी प्रमुख तीर्थंकर, अनंत सीधा इण ठाम रे । अनंत वली सिझस्ये इण ठामे, तिन करूं नित परनाम रे॥१॥ शत्रुञ्जय साधु अनंता सीधा, सीझसी वलिय अनंत रे। जिन शत्रुञ्जय तीरथ नहिं भेट्यो, ते गरभावास कहन्त रे॥श० २॥ फागुन सुदि आठमने दिवसे, ऋषभदेव सुखकार रे। रायणरूंख समवसरया स्वामी, पूर्व निनाणं वार रे ॥३॥ भरत पुत्र चैत्री पूनम दिन, इण शत्रुञ्जय गिरि आय रे। पांच कोडी सूं पुण्डरीक सीधा, तिन पुण्डरीक कहाय रे ॥४॥ नमि विनमी राजा विद्याधर, बेबे कोडी संघात रे । फागुन सुदि दशमी दिन सीधा, तिण प्रणमं परभात रे ॥५॥ चैत्र मास वदि चौदसने दिन, नमि पुत्री चउसहि रे । अणसण कर शत्रुञ्जय गिरि ऊपर, ए सहु सीधा एकहि रे ॥६॥ पोतरा प्रथम तीर्थंकर केरा, द्रावडने वारिखिल्ल रे। काती सुदि पूनम दिन सीधा, दश कोडी तूं मुनि सल्ल रे ॥७॥ पांचे पांडव इण गिर सीधा, नव नारद ऋषिराय रे । संब प्रज्जून्न गया इहां मुगते, आळं कर्म खपाय रे ॥८॥ नेमि बिना तेवीस तीर्थकर, समवसरया गिरि शृङ्गरे। अजित शान्ति तीर्थंकर बेहूं, रह्या चौमासे सुरङ्ग रे ॥९॥ सहस साधु परिवार संघाते, थावच्चा सुत साथ रे । पांच से साधु सो सेलग मुनिवर, शत्रुञ्जय शिवसुख लाध रे ॥१०॥ असंख्याता मुनि शत्रुञ्जय सीधा, भरतेसरने पाट रे। राम अने भरतादिक सीधा, मुक्ति तणी ए वाट रे ॥११॥ जालि मयालीने उवयाली, प्रमुख साधुनी कोडि रे। साधु अनंता शत्रुञ्जय सीधा, प्रणमं बे करजोड़ि रे ॥१२॥
॥ ढाल ॥ शत्रुञ्जयना कहुं सोल उद्धार, ते सुणज्यो सहुको सुविचार । सुनतां आनंद अंग न माय, जनम जनमना पातक जाय ॥१॥ ऋषभदेव अयोध्यापुरी, समवसरया स्वामी हित करी। भरत गयो वन्दनने काज, .
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