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. जैन-रत्नसार वछ कांछलीयेजी जीमणोजी, अरस विरस आहार । भुंइ पाला नित हीडणोजी, जाणसि तुझ कुमार रे जाया ॥६॥ भमतां जीव अनंत भम्योजी, धरम दुहेलो होय । जरा व्यापे जीवन खिसेजी, तब किम करणो । होय रे मायड़ी ॥७॥ मृगनयणी आठे रमेजी, ताड़े नवसर हार । जीवन भर छोडूं नहींजी, काइ मूको निरधार कुमारजी ॥८॥ हंस तूलिका सेजड़ीजी, रूप रमणि रस भोग अतिहि सुंहाली देहड़ीजी । किम हुए संयम जोग रे जाया ॥९॥ स्वारथनो सहू ए सगोजी, अरथ पखे सहु । कोय । विषय विषम सहुरा कह्याजी, किम भोगविये सोय रे मायड़ी ॥१०॥ खमि खमि माउ पसाय करीजी, मै दीवू तुझ दुक्ख । दियो आदेस जिमहूं सुखीजी, वीर चरणें ल्यूं दिक्ख है ॥११॥ तन फाटे लोयण झरेजी, दुक्ख न सहया जाइ । वच्छ सुखी हुवो तिम करोजी, मैं दीघो आदेश रे जाया ॥१२॥ मणि माणक मोती तज्याजी, तोड्यो नव सर हार । मृगनयणी आठे रडेजी, हिव अम्ह कवण आधार नरेसर ॥१३॥ कुमर भणे सुकुली थियाजी, बहु दुख ए संसार । नेह तुमारो जानियोजी, जोल्यो संयम भार रे नारी ॥१४॥ इम सिविका तब सझी करीजी, कुंवर धारणी माइ ।
श्रेणिकराय उच्छव कर जी, चारित्रल्यो रिषिराय रे जाया ॥१५॥ इम जाणी | वैरागियोजी, वरजे जे नर नारि । करजोड़ी पूनो भणेजी, ते तरस्ये संसार हे माय ॥१६॥
प्रसन्नचन्द राजा की सज्झाय राज छंडी रलियामणो रे, जानी अथिर संसार । वैरागे मन वालियो काइ लीधो संजम भार । प्रसन्नचन्द प्रणमं तुम्हारा पाय,तुम्हे मोटा मुनिराय ॥१॥ वन माहे काउसग्ग रह्यो रे, पग ऊपर पग ठाय । बांह बेउं ऊंची करी, सूरज सांमी दृष्टी लगाय ॥२॥ श्रेणिक वन्दन नीसस्यो रे, वीरजीने वन्दन जाय । देई तीन प्रदक्षिणा, त्रिविध त्रिविध खमाय ॥३॥ दुरमुख दुत वचन सुनी रे, कोप चढ्यो ततकाल । मनसू संग्राम मांडियो
जीव पड्यो जंजाल ॥४॥ श्रेणिक प्रश्न पूछियो रे, एहकि सी गति पाय | लगन्जबलप्रचलनवलनवलप्रवचन
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