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विधि-विभाग
१७ ३५ वोधि दुर्लभ भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ३६ धर्म दुर्लभ भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः ।
आचार्य पद चैत्यवन्दन जिन पद कुल मुख रस अनिल, मित रस गुणधारी ।
प्रबल सबल घन मोह की, जिणतें चमुहारी ॥१॥ ऋचादिक जिन राज गीत, नय तय विस्तारी ।
भव कूपें पापे पड़त, जग जन निस्तारी ॥२॥ पंचा चारी जीव के, आचारज पद सार ।
तिन. कू वन्दे हीर धर्म, अष्टोत्तर सौ बार ॥३॥
आचार्य पद स्तवन खंति खड़ग थी जेणे, हण्यो क्रोध सुभट सम देणें हो ( गणपति गुणपेखी ) मान महागिरि वयरें।अति शोभन मद्दव वयरें हो ( गणपति गुणपेखी ) ॥१॥ दंभ रूप विषवेली वर अञ्जव कीले ठेली हो (गणपति गुणपेखी ) । मूर्छा बेल थी भरियो, लोह सागर मुत्तं तरियो हो ( गणपति गुण पेखी ) ॥२॥ मदन नाग मद हीनो, जिण दम शम जन्त्रे कीनो हो (गणपति गुणपेखी)। मोह महा मल्ल ताड्यो, पुण वैराग मुगरे पाडयो हो । ( गणपति गुणपेखी) ॥३॥ दोष गयंद वश कीनो, धरि उपशम । अंकुश लीनो हो (गणपति गुणपेखी ) अंत रंग रिपु भेद्या, सुर वर पिण जिणणिपेध्या हो ( गणपति गुणपेखी) || रसकृति गुण थी लीनो । मृन अरथे आगम पीनो हो (गणपति गुणपखी ) । आचारज पढ़ रहवा, धरि जीव कुशलता सेवो हो ( गणपति गुणपेखी ) ||५||
आचार्य पद थई पंचाचार के पाले उजवाले. दोर रहित गुणधार्ग जी ।
गुण छत्तीने आगम धारी, द्वादश अंग विचारी जी ॥ . या महागज में :