________________
ప్రతctatisticatio
alattit
o
tation
n जैन-रत्नसार
७४
-
--
----
--
--
akalamketakakakikakuthrimlakartakofiti koliminal-Etios karlirtskirinoli-fimli thakirka.isthorta limisioki toliwi nauth inkamlinkethalamwlinetrinthiakh maliniakah tichatarkatirliardeli-lakatest
atatasantadakatalakataratmatalilianthineselithalalkritientalaitan-finitellitishallant-
t
(८) सागारीआगारेणं-जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि साधू एकान्त स्थान अर्थात् जहां कोई गृहस्थ न देखता हो भोजन करे, यदि एकासणादिक पच्चखाण करके भोजन खाने के लिये बैठे हुए साधु महाराज के पास कोई गृहस्थ चला आवे तो मुनि महाराज उस स्थान से स्थानान्तर होवें तो पच्चक्खाण भंग नहीं होता । तथा गृहस्थों के लिये इस बात को उल्लेख है कि वे यदि एकासणादिक पच्चक्खाण लेकर भोजनार्थ बैठे हुए को सम्मुखस्थित पुरुष की नजर लगती होय तो वे यदि स्थानान्तर होते हैं तो व्रत खण्डित नहीं होता।
(९) आउट्टणपसारेणं-सर्प के आने से, अग्नि प्रकोप से, मकान के गिर पड़नेसे, अंग सुन्न पड़ जानेसे यदि हाथ पैरोंको फैलाया या सिकोड़ा जाय तो नियम भङ्ग नहीं होता है ।
(१०) गुरुअभुट्ठाणेणं-गुरु महाराज या कोई बड़े पुरुष के विनय करने के लिये भोजन करते हुए, एकासणादिक में आसन छोड़कर खड़ा हो जाने से व्रत टूटता नहीं।
(११) पारिठ्ठावणियागारेणं-अधिक हो जाने के कारण जिस आहार को उस सरस आहार के परठवन' से अधिक जीव विराधना होती देखकर गुरु आज्ञा से पच्चक्खाणधारी साधू दुसरे समय भी आहार करे तो नियम खण्डित नहीं होता।
(१२) लेवालेवेणं-भोजन करने के थाल प्रमुखादि भोजन में धृतादिक विगय द्रव्य का अंश लगा हुआ देखकर, हाथादि से साफ कर लेने पर भी जिस बर्तन में चिकनाहट का कुछ अंश रह जाय, उसमें यदि आयम्बिलादि व्रतवाला भोजन कर लेवे तो व्रत भङ्ग नहीं होता है।
(१३) उक्खित्तविवेगेणं-आयम्बिलादि पच्चक्खाण में न खाने योग्य
• अपनी भूख से अधिक भूल कर लाया हुआ या गृहस्थ द्वारा भक्तिवशात् अधिक दिया हुआ आहार को गुरु-आना से धन में जाकर साधु शुद्ध भूमि में परिठावे, अर्थात मिट्टी में मिला देवे उसे "परठवना" कहते हैं!
hakur-tulatalath
k adilatolast-trakatalalaptisatists
n
A NI-TARAI
-
-
atree
e
r
t