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सूत्र विभाग
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भ्रम पूर्वक पच्चक्खाण का समय समाप्त हुआ जान कर भोजन आदि कर ले, तो व्रत भङ्ग नहीं होता है ।
शुद्ध पच्चक्खाण उसे कहते हैं जो पच्चक्खाण करने वाले या कराने वाले आगारों का अर्थ सुचारु रूप से जानते हों ।
अतः पच्चक्खाण करनेवालों का परम कर्त्तव्य है कि वे शुद्ध पच्चखाण करने का प्रयत्न करें तथा पच्चक्खाण करानेवाला जब अंत में "वोसिरे” कहता है तो करनेवाले को अवश्य "वोसिरामि" कहना चाहिये । अन्यथा व्रत नहीं लिया हुआ समझा जाता है
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(३) दिसामोहेणं - दिशा का भ्रम हो जाने से अर्थात पूर्व दिशा को पश्चिम दिशा जानकर काल समाप्ति से पूर्व ही भोजन कर ले तो व्रत खण्डित नहीं होता ।
तालते
(४) सहसागारेण - अतिशीघ्रपने में या अकस्मात् से घी तेल आदि हुए या देखते हुए छींटे मुख में गिर जायें तो व्रत में दूषण नहीं लगता है ।
(५) साहुवय - साधु के वचन से "उग्घाडा पोरिसी” शब्द को, जां कि व्याख्यान में पोरिसी पढ़ते समय बोला जाता है, सुनकर अधूरे समय में ही पच्चक्खाण को पार लेने से व्रत भङ्ग नहीं होता ।
(६) सव्र्वसमाहिबत्तियागारेणं - पच्चक्खाण का समय पूरा होने के पूर्व ही तीव्र रोगादिके कारण अस्थिर चित्त तथा आर्त्तरौद्र ध्यान होने से, उस रोगके उपशमन (शान्त करने) के हेतु औषधी आदि ग्रहण करने से दृता नहीं ।
(७) महत्तरागारेण विशेष निर्जरा आदि खास कारण से गुरु की आज्ञा पाकर निश्चय किये हुए समय से प्रथम ही पच्चक्खाण पार लेने से मन में दूषण नहीं लगता ।
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प्यारा के समय सूत्र समाप्ति तथा चरित्र प्रारम्भ के प्रथम जो साधु, पति) पल्दिन करके पक्लाण कराते है उसे 'उघाडा पोरिसी"