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जैन-रत्नसार ॐ हजार । संख्याता अक्षर पद मांहे, कुन लहे तेहनो रे पार ॥ मो० ५ ॥ | अगम अनंता परियाय वली, भेद अनंत जिन मांही । गुणअनन्त त्रस परित्त कह्या, थावर अनंत ले याही ॥ मो० ६ ॥ निबद्ध निकाचित्त जे सासय कडा, जिन पनत्ता रे भाव । भासी रे सुन्दर एह प्ररूपणा, चरण करणनो रे जाव ॥ मो० ७ ॥ करिये भक्त जगत ए सूत्रनी, निश्चय लहिये रे मुक्ति। विनयचन्द्र कहे प्रगट, ए थी आत्म गुणनी रे शक्ति ॥ मो० ८ ॥
ठाणांग सूत्र सज्झाय त्रीजो अङ्ग भलो कह्यो रे जिनजी, नामें श्री ठाणांग । मेरो मन मगन थयो हारे देखि देखि भाव, हारे जीवाजीव स्वभाव ॥ मेरो मन मगन थयो, सबल जगत करि छाजता रे। जिनजी जीवाभिगम उपांग, मेरो मन मगन थयो ॥१॥ एह अङ्ग मुझ मन वस्यो रे जिनजी, जिम कोकिल दल अंब । गुहिर भाव कर जागतो रे जिनजी, आज तो एह आलंब ॥ मो० २ ॥ कूट शैल शिखर शिला रे जिनजी, कानन में बलि कुंड । गह्वर आगर द्रह नदी रे जिनजी, जेह में अछे रे उदंड ॥ मो० ३ ॥ दश ठाणा अति दीपता रे जिनजी, गुण पर्याय प्रयोग । परित्त जेहनी बांचना रे जिनजी, संख्याता अनुयोग ॥ मो० ४ ॥ वेष्ट शिलोक निजुत्त सं रे जिनजी, संगहणी पडि मित्त । ए सहु संख्याता जिहां रे जिनजी, सुणतां उलसे चित्त ॥ मो० ५ ॥ सुयखंध इक राजतो रे जिनजी, दश अध्ययन उदार । उद्देशादिक वीस छ रे जिनजी, पद बहुत्तर हजार ॥ मो० ६ ॥ रागी जिन शासन तणो रे जिनजी, सुणे सिद्धान्त वखान । विनयचन्द्र कहे ते हुवे रे जिनजी, परमारथरा जान ॥ मो० ७ ॥
समवायांग सूत्र सज्झाय चौथो समवायांग सुणो श्रोता गुणी हो लाल, पन्नवणा उपांग करी सोभावणी हो लाल । अरध मागधी भाषा साखा सुरतणी हो लाल, समकित भाव कुसुम परिमलव्यापी धणी हो लाल ॥ परि० १॥ जीव अजीव ने जीवाजीव समासथी हो लाल, लहिये एहथी भाव विरोध काइनथी हो
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