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जैन - रत्नसार
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दु:करं पिहु, हुयवह णिबड़ेण जड़ेन कथं । आणा सव्वष्णूर्ण ण कया सुकयत्थ मूलमिणं ||३|| यह कहकर माला पहनावे |
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फूल पूजा
उवणेव मंगलेवो, जिणाण सुह लालि संवलिया । तित्थपवत्तय समई, तियसे विमुक्का कुसुम बुट्ठी || १|| यह कहकर प्रभुके सम्मुख फूल उछाले ।
वरसता,
वृहत् नवपद-पूजा प्रथम श्री अरिहंतपद - पूजा ॥ दोहा ॥
परम मंत्र प्रणमी करी, तासु धरी उर ध्यान । अरिहंतपद पूजा करो, निज निज शक्ति प्रमाण ||१||
|| काव्य ॥
जियंतरागार जिणेसुणाणे सप्पाडि हेराइ समप्पहाणे संदेह संदोहरयं हरंते, झाहणिचंपि जिणेरिहंते ||२|| उप्पण्ण सण्णाण महोमयाणं, सप्पाडि हेरा सणसंठियाणं । सदेसणाणंदिय सज्जणाणं, णमो णमो होउ सयाजि - णाणं ॥३॥ णमोणंत संत प्रमोद प्रदानं, प्रधानाय भव्यात्मने भारवताय ॥ थया जेहना ध्यानथी सौख्यभाजा, सदा सिद्धचक्राय श्रीपालराजा ॥४॥ कर्या कर्म दुर्मर्म चकचूर जेणे, भला भव्य णवपद ध्यानेन तेणें ॥ करी पूजना भव्य भावे त्रिकाले, सदा वासियो आतमा तेण काले ||५|| जिके तीर्थकर कर्म उदये करीने, दिये देशना भव्यने हित धरीने । सदा आठ महापाडिहारे समेता, सुरेशे नरेशे स्तव्या ब्रह्मपूता ||६|| करचा घातिया कर्म चारे अलग्गा, भवोपग्रही चार छे जे विलग्गा ॥ जगत्पंच कल्याणके सौख्य पायें, नमो तेह तीर्थंकरा मोक्षमामें ॥७॥
तीरथपति अरिहा नमूं, निज वीरज बड वीरो जी ॥ ती० ८ ॥
॥ ढाल ॥
धरम धुरन्धर धीरो जी ॥ देसना अमृत