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___ जैन-रनसार
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उमण जनजनमत्रप्रनयन प्रश्रित्र ननननननननननननननननननननननननन प्रयत्र-तत्रनयनपत्रण नयनत्रनमात्रय
* ए बेहिज लहे मिश्र सत्य असत्य जहां, सर दहणां बेऊ छती ए ॥१०॥
मिश्र गुणालय माहिं मरण लहे नहीं, और बंधन पड़े नवो ए। के तो लहे मिथ्यात्व केसर समकित लहे, मति चोखी गति परभवे ए ॥११॥ च्यार अप्रत्याख्यान उदय करि लहे, मति विन किहां समकित पणो ए। ते अविरत गुण ठाण तेतीस सागर, साधिक थिति एहनी भणी ए ॥१२॥ दया उपशम संवेग निरवेद आसता, समकित गुण पांचे धरे ए । सहु जिन वचन प्रमाण, जिन शासन तणी अधिक अधिक उन्नत करे ए ॥१३॥ कइयक समकित पाय पुद्गल आराधतां, उत्कृष्टा भव में रहे ए। कइयक भेदी गंठि अंतर मुहूरते, चढ़ते गुण शिवपद लहे ए ॥१४॥ चार कषाय प्रथम त्रिण वलि मोहनी, मिथ्या मिश्र सम्यक्त्वनी ए । सातें प्रकृति जास परही उपशमें, ते उपशम समकित धणी ए ॥१५॥ जिण साते क्षय कीध ते नर क्षायकी, तिण हिज भव शिव अनुसरे ए। आगलि बांध्यो आऊ तातें तिहां थकी, तीजे चौथे भव तिरे ए ॥१६॥
(इण पुर कम्बल कोइ लेसी) पंचम देस विरति गुणठाण, प्रगटे चौकड़ी प्रत्याख्यान । जे नतजेवा बीस अभक्त, पाम्यो श्रावक पणो प्रत्यक्ष ॥ १७ ॥ गुण इकवीस तिके पिण धारे, साया बारे व्रत संभारे । पूजादिक षट् कारज साधे इग्यारे प्रतिमा आराधे ॥ १८ ॥ आर्त रौद्र ध्यान है मन्द, आयो मध्य धरम आणंद । आठ बरस उणी पुव्व कोड़, पंचम गुणठाणे थित जोड़ ॥ १९ ॥ हिव आगे साते गुण थान, इक इक अंतर मुहुरत मान । पंच प्रमाद वसे जिन ठाम, तेन प्रमत्त छटो गुण धाम ॥२०॥ जिनवर कलप जिन कलप आचार, साधे षट् आवश्यक सार । उद्यत'चौथा चार कषाय, तेन प्रमत गुणठाण कहाय ॥२१॥ सूधो राखे चित्त समाधे, धरम ध्यान एकांत आराधे । जिहां प्रमाद क्रिया विधिनासे, अपरमत्त सप्तम गुण भासे ॥२२॥
(नदी यमुना के तीर उड़े दोय पंखिया) पहिले अंसे अट्ठम गुण ठाण तणे, आरंभे दोय श्रेणि संखे पतें गणें ।
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