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మనం నందునను Fa४०२
....... जन-रत्नसार चउ भेद करी मनमें आणो, इम भाखे श्रीजिन जगभाणो ॥ म० ७ ॥ अरथें करि भेद जिणंद आखें, पण इन्द्री मनकर प्रभु दाखें, मुनि मानस ते दिलमें राखें ॥ म० ८॥ वलि षट् विध भेद इहां कहिये, षट् भेद अपाय करी लहिये, पट् विध धारण भवि सरदहिये । म० ९ ॥ इम भेद अठाइस भवि धारो, इम भाखें जिनवर सुखकारो, निश्चय व्यवहार ते अवधारो ॥ म० १० ॥ वलि रतन जडित कंचन कलशे, भवि पूजन कर तनमन उलसे, चिदरूप अनूप सदा विलसे ॥ म० ११ ॥ ए ज्ञान दिवाकर सम कहिये, इम सुमति कहे दिलमें गहिये, ए ज्ञानथी अनुपम सुख लहिये ॥ म० १२ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमतिज्ञानधारकेभ्यो अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा।
द्वितीय श्रुतज्ञान पूजा
॥दोहा॥ श्रुतधारक पूजन करो, भाव धरी मनरंग । उपकारी सिर सेहरो, भाखे जिन उछरंग ॥१॥ मृगमद चंदन वाससें, जो पूजे श्रुतअंग । अनुभव शुद्ध प्रगटे सही, पावें सौख्य अभंग ॥२॥
(नभिजीके नंदाजीसे लाग्या मेरा नेहरा,) श्रुत जाकी पूजाकर सीखो भवि सेहरा ॥ विनय सहित गुरु वंदन करके लुल लुल, पाय नमें गुरु देवरा । तीन तीस आसातन टाली, । भगत करे भवि गुणगण गेहरा ॥ श्रु० ३॥ श्रीगुरु ज्ञान अखंडित वरते,
ज्यू पावस ऋतु वरसे मेहरों । दश विध विनय करे श्रुत गुरुको, सेवे ज्यूं । अलि फूलने नेहरा ॥ श्रु० ४॥ गुण मणि रयण भरयो श्रुतसागर, देख
दरस हरखावे मेरा जियरा । पूजन वायन बलि बलि करिये, सीझे वंछित ज्यं मुनि सेवरा ॥ श्रु० ५॥ गुरु भगती जैसे गणधरकी, वीर कहे सुण । गौतम सेहरा । ऐसे गुरुकी भक्ति सीखो, ए श्रुतज्ञान सकल सुख ।
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