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________________ [ ५० ]. जिनेश्वर सूरि आदि गुरुओं मूर्त्तियां स्थापित कराई और सूरिजी ने अपने हाथों से आषाढ़ वदि ८ प्रतिष्ठा की। वहां से विहार करते हुए गिरिनार आये। संघ द्वारा नेमिनाथ स्वामी के भण्डारमें ४०००० रुपयों की आमदनी हुई। इसी भांति विहार करते हुए सूरि जी पाटण में चातुर्मास करने के लिये ठहर गये और संघ दिल्ली पहुंचा। इसी तरह और जगहों में भी प्रतिष्ठायें की गयीं। सिन्ध देश में भी सूरिजी का आना हुआ और कई मन्दिरों की प्रतिष्ठायें हुई। इनके द्वारा धर्म की बड़ी तरक्की हुई। अन्तिम चौमासा इनका देवराज (देराउल ) पुर में हुआ । यहीं माघ शुक्ल १३ संवत् १३८९ में सूरिजी को अत्यन्त तीव्र ज्वर हुआ । अपना अन्तिमकाल उपस्थित समझ कर श्री तरुण प्रभाचार्य और लब्धि निधानोपाध्याय को इन्होंने अपने मुख से कहा कि लक्ष्मीधर के पुत्र, अम्बा देवी तनय पञ्चदश वर्षीय आयु वाले पद्म मूर्त्ति को मेरे बाद सूरि पद देना । और भी गच्छ सम्बन्धी शिक्षायें देकर फाल्गुन वदि ५ को स्वर्ग सिधार गये । आवश्यक कौन आवश्यक से किस आचार की शुद्धि होती है ? सामायिक प्रतिक्रमण और काउसग्ग इन तीन आवश्यकों से चारित्राचार की विशुद्धि होती है । चव्विसत्था (चतुर्विशति स्तव लोगस्स ) आवश्यक से दर्शनाचार की विशुद्धि होती है । वन्दन आवश्यक से दर्शनाचार, ज्ञानाचार और चारित्राचार की विशुद्धि होती है । पश्चक्खाण आवश्यक से तपाचार की विशुद्धि होती है और इन छहों आवश्यकों में वीर्य का विकास करने से वीर्याचार की विशुद्धि कहाती है । कौन आवश्यक कहां से कहां तक है ? १ सामायिक – “इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं ( राई ) पडिकमणो ठाउ" इस सूत्र से प्रतिक्रमण की क्रिया शुरू होती है। वहां से लेकर "करेमि भंते " सूत्र द्वारा ८ णमोकार का जो काउग किया जाता है वहा तक सामायिक नाम का प्रथम आवश्यक कहा जाता है । २ उच्चिसत्था - ८ णमोक्कार के काउसग्ग के बाद जो लोगस्स बोला जाता है वह दूसरा आवश्यक कहा जाता है ! ३ वंदना -- लोगस्स कहने के बाद तीसरी आवश्यक सूत्र वंदणा मुंहपत्ति पडिलेह कर दो वंदना दी जाती हैं वह तीसरा वंदना नाम का आवश्यक है । ४ पडिकमणा - वंदना देने के वाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं (राइयं) आलोउ" वहा से लेकर "आयरिय उवज्झाए” पर्यन्त प्रतिक्रमण नाम का चौथा आवश्यक है । पक्खी चौमासी और सम्वत्सरी प्रतिक्रमण इस चतुर्थ आवश्यक के अन्तर्भूत है। ५ “आयरिअ उवज्झायके बाद जो दो लोगस्स, एक लोगस्स और एक लोगस्सका काउसग्ग किया जाता है वह काउसग्ग नाम का पांचवां आवश्यक है । ६ पञ्चक्खाण – पञ्चक्खाण करना छठा आवश्यक है। नोट -- गुर्वा वलियों में सूरिजी को निर्वाण तिथि सवत् १३८६ फाल्गुन वदि १५ मिलती है, यही प्रथा लोगों में अधिक वृद्ध मूल है।
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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