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बाद में श्री जिनचन्द्रसूरिजी नागोर आये तो वहां के प्रतिष्ठित आदमियों ने उत्सव प्रारम्भ कराया, जगह जगह पर दानशालायें खोलीं, जिन मन्दिरों में नन्दी उत्सवादि शुरू किये गये । उस महोत्सव में सोमचन्द्र आदि साधु और शील समृद्धि आदि साध्वियों को दीक्षा दी गई। जगचन्द्रजी को वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया। कुशलकीर्त्तिजी को भी वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया ।
बाद की बात है, श्री जिनचन्द्र सूरिजी विहार करते हुए खण्ड सराय में आकर चातुर्मास कर रहे थे। कि वहां उनको 'कम्प' रोग हो गया। उन्होंने अपने ज्ञान ध्यान से अपनी आयु शेप समझ कर अपने हाथ से दीक्षित, तर्क साहित्य, अलङ्कार ज्योतिष और पर- दर्शनों के प्रकाण्ड विद्वान् वाचनाचार्य कुशल कीर्त्ति गण को अपना सूरि पद प्रदान करने के लिये राजेन्द्र चन्द्राचार्यजी के पास पत्र भेजा और कुछ स्वस्थ होकर मेडता होते हुए कोशवाणी आये एवं अनशन करके स्वर्ग सिधार गये ।
इधर जयवल्लभ गणि के द्वारा उक्त सूरिजी का पत्र राजेन्द्र सुरिजी को मिला । यद्यपि उन दिनों में वहां महा भयङ्कर अकाल पड़ रहा था। फिर भी दिवंगत श्री जिनचन्द्र सूरिजी की आज्ञा पालन करना उन्होंने अपना परम कर्त्तव्य समझा फलतः सूरि पद प्रदान मुहूर्त्त निकाल दिया। सच्चे महात्मा की अभिलाषा आप ही आप पूरी हो जाती है, श्रावक जाल्हण के पुत्र तेजपाल और रुद्रपाल ने सूरि पद स्थापन महोत्सव को अपनी ओर से सुसम्पन्न करने का भार स्वीकार कर लिया फलतः श्रीमान् आचार्य की आज्ञा लेकर योगिनीपुर, उच्च नगर, देवगिरि, चित्तौड़, खम्भात आदि चारों दिशाओं में आमन्त्रण पत्रिकाएं भेजी गयीं ; संघ आने लगे ।
बड़े समारोह के साथ - संवत् १३७७ की जेठ वदि ११ को श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्य जी ने महामहोपाध्याय विवेक समुद्रजी, प्रवर्त्तक जयवल्लभ जी आदि ३३ साधुओं जयद्धि आदि २३ साध्विओं और समस्त संघ के समक्ष स्वर्गीय आचार्य पाद की आज्ञानुसार शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर में सूरि पद पर कुशल कीर्त्ति जी को बैठाया और आचार्यपाद का नाम कुशल सूरि रखा ।
पद प्राप्त करने के बाद सूरिजी महाराज ने भीम पल्ली की ओर विहार किया। वहां पहुंचने पर वीरदेव श्रावक ने प्रवेश महोत्सव मनाया। वहां से आप पाटण गये और सूरिजी का दूसरा चातुर्मास वहां ही सम्पन्न हुआ । संवत् १३७६ मार्गशीर्ष कृष्ण पञ्चमी को इन्होंने शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर में प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। बाद में शत्रुञ्जय पर्वत पर ऋषभदेव स्वामी के मन्दिर की नीव डलवाई और मूर्त्तियों की प्रतिष्ठा कराई। इसी तरह सूरिजी अनेक शहरों में प्रतिष्ठा अप्टाहिका आदि उत्सव कराते हुए पाटण पहुंचे |
इधर दिल्ली निवासी श्रावक रायपति दिल्ली सम्राट गयासुद्दीन तुगलक के दरबार मे अपना प्रस्ताव रखा कि मैं संघ निकालना चाहता हूं, ताकि मैं चारों दिशाओं में भ्रमण कर सकूं और जहां कहीं भी मुझे जिस चीज की आवश्यकता पड़े, सहायता मिले। सम्राट से मंजूरी मिल गई। यह समाचार सूरिजी के पास पाटण भेज दिया। संघ यात्रार्थ रवाना हो गया। कई तीर्थो की यात्रा करता हुआ संघ पाटण पहुंचा। वहां संघ ने सूरिजी को यात्रा करने के लिये राजी कर लिया। सूरिजी १७ नाधुओं और १९ साध्वियों के साथ बिहार करने के लिये चल पड़े। आचार्यपाद संघ के साथ बिहार करते हुए शत्रुश्ञ्जय जी की तलहट्टी मे पहुंचे। वहां पार्श्वनाथ स्वामी की पूजा करके संघ पर्वत पर चढ़ा | ऋषभदेव भगवान् के आगे सूरिजी ने अनेक स्तोत्रों का निर्माण किया और वहीं यशोभद्र, देवभट नामक शुक्कों को दीक्षा दी। वहां पर संघ ने श्री आदिनाथ स्वामी के मन्दिर में नेमिनाथजी आदि की तथा जिनपति सुरि
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