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जैन - रत्नसार
निर्वद्या अर्हतः पूजायां निर्व्यथा सन्तु निष्पापाः सन्तु सद्गतयः सन्तु नमोऽस्तु संघट्टन हिंसा पाप मर्हदर्च्चने' इस मन्त्र से पुष्प शुद्ध करना ।
धूप को 'ॐ अग्नयो अभिकाया एकेन्द्रिया जीवा निर्वद्या अर्हतः पूजायां निर्व्यथा सन्तु निष्पापाः सन्तु सद्गतयः सन्तु नमोऽख संघट्टन हिंसा पाप मर्हदच्चने' इस मन्त्र को तीन बार बोले तथा धूप शुद्ध करे ।
इस प्रकार अष्ट द्रव्य सहित मूल गम्भारे में प्रवेश करके प्रभु पूजन को छोड़ शेष सब कामों का निषेध करे। फिर प्रभु को धूप देवे । फिर प्रभु के ऊपर से बासी पुष्प उतार मोर पिच्छी से प्रमार्जन करे । फिर दूध से स्नान करा, खस कूची से धीरे धीरे केशरादि अवशिष्ट द्रव्य उतारे । फिर जल से स्नान कराते समय ये श्लोक कहे :
जल पूजा
विमल केवल भासन भास्करं, जगति जन्तु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः शुचिमन स्नपयामि विशुद्धये ॥१॥
अथवा
गंगा* नदी पुनि तीर्थ जल से, कनक मये कलशे भरी, निज शुद्ध भावे विमल भासे, न्हवण जिनवर को करी । भव पाप ताप निवारणी, प्रभु पूजना जग हित करी,
करूं विमल आतम कारणे, व्यवहार निश्चय मन घरी ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमत् जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ||
'हे भगवन आपको स्नान कराने से मेरा कर्मरूपी मैल दूर हों' इस प्रकार चिन्तवन करते हुए पीछे तीन अंगलूहणों से प्रभुजी का देह (शरीर )
* प्रभुको गङ्गा, जमुना, गोदावरी, प्रयाग, नर्मदा, सिन्धु आदि बहती हुई नदियोंके जलसे स्नान कराना चाहिये इसके अलावा कुओं का जल भी शुद्ध माना गया है। केशर, कपूरादि सुगन्धित चीजों से मिश्रित जल फासू हो जाता है प्रतिमाजी पर पूजन के समय प्राशुक ( फासू ) जल ही चढ़ाना उचित है ।