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అవును
जैन-रत्नसार पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके गुरु को वन्दन करे। पीछे गुरु कहे 'पवेयणं पवेह, तब उपधान वहन करनेवाला कहे इच्छा० अमुक उपधान निमित्तं निरुद्धं वा तवं करावेह । गुरु कहें-उपवासे आयंबिलेनिरुद्देति एकासणे, ऐसा कहे । पीछे १० खमासमण अनुक्रम से कहे-बहुवेलं संदिस्सादेमि १ बहुवेलंकरेमि २ वइसणं संदिरसावेमि ३ वइसणं ठाएमि ४ सज्झायं संदिस्साएमि ५ सज्झायं करेमि ६ पांगरणो,संदिस्साउं ७ पांगरणो पडिग्गहूं ८ कट्ठासणो संदिस्साउं ९ कछासणो पडिग्गहूं १० । इसके बाद मुंहपत्ति पडिलेहण करके दो वन्दन देवे, गुरु कहे सुख तप, तब उपधान । व्रत करने वाला कहे आपके प्रसाद से सुख है।
. अब तीसरे पहर पडिलेहण करने के बाद स्थापना के आगे गुरुके हुकुम से इरियावही पडिकमे कह पहले खमासमण से पडिलेहण करूं दुसरे खमासमण से पोसहसाला प्रमाजू ऐसा कह कर मुंहपत्ति पडिलेहण करे। ऐसे दो खमासमण पूर्वक अंगपडिलेहण और मुंहपत्ति पडिलेहण करे। यहांपर अंग शब्दसे 'करिपट्ट' (कणदोरा, करधनी) जानना ऐसा गीतार्थोंने कहा है । पीछे वसति प्रमार्जन कर वहां पर उसी दिन यदि भोजन किया हो तब तो पहरने का वस्त्र पडिलेहण करे । बाकी वस्त्र पडिलेहण नहीं करे । और यदि उस दिन उपवास हो तो एक भी वस्त्र पडिलेहण करने की जरूरत नहीं है । पीछे गुरु के पास आकर 'इरियावही' पडिक्कमे कह पडिलेहणा करे अंग पडिलेहण गुरु के सामने करे । पीछे 'सज्झाय संदिस्सावेमि' सज्झाय करेमि आठ णमोकार का ध्यान करे। पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके २ वन्दना देवे । तिविहार अथवा चउविहार का पञ्चक्खाण कर १० खमासमण अनुक्रम से इस प्रकार दे
ओही पडिलेहण संदिस्साउं १ ओही पडिलेहण करूं २ सज्झाय संदिस्सा ३ सज्झाय करूं ४ वेसणू संदिस्साउं ५ वेसणू ठाउं ६ कट्ठासणो संदिस्साउं ७ कट्ठासणो पडिग्गहूं ८ पांगरणो संदिस्साउं ९ पांगरणो पडिग्गहूं १० । पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके दो वन्दना दे सुख
మనము
మనముననున్ననననననననననన తనననననన