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________________ I n testantsethrdarshikskskskobaonkkiesktooteobhrabankikebab tockroketakskoshtikhittoide पूजा-विभाग s सद्मवासी ॥ जी० ५ ॥ बिनु हेतु विश्वबंधु, गुण रत्न राशि सिंधु, समता पियूष अंधू ।। जी० ६ ॥ स्याद्वाद पक्ष गाजे, नयसप्तसे विराजे, एकान्त पक्ष भाजे । जी. ७ ॥ लहि तीर्थ पाव तारा, इनसे जिनेन्द्र सारा, भविका किया उधारा ॥ जी० ८ ॥ पद सेवि ए नरिन्दा, भये सागरादि चन्दा, जिन हर्षके समन्दा ॥ जी. ९॥ ॥ काव्य ॥ सुद्धक्किया मंडल मंडणस्स, संदेह संदोह विखंडणस्स । मुत्ती उपादाण सुकारणस्स, णमोहि नाणस्स जसोधणस्स ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानाय नमः । एकोनविंशतितम श्रुतपद पूजा ॥ दोहा ॥ पाप ताप संहरण हरि, चंदन सम श्रुत हार ।। तत्त्व रमण कारण करण, अशरण शरण उदार ॥१॥ इगुनवीस पदमे भजो, जिनवर श्रुतनी भक्ति । इनपद वंदनसे लहे, विमलनाण युत शक्ति ॥२॥ ॥ राग ।। (ब्रजवासी कानतें मेरी गागर ढोरी रे) भविजन श्रुतभक्ति, चरण शरण उर धरिये रे । ए श्रुतभक्ति सुमंगल माल, विमल केवल कमलावरमाल ॥ भवि० ३ ॥ सकल द्रव्यगण गुणप। योय, प्रगट करण ए श्रुत मन भाय । अतुल अनंतकिरण समवाय, धरण तरणगण सम कहिवाय ॥ भ० ४ ॥ ए श्रुतकुमति युवतिन संग, अगणित रमण तणो करे भंग । अरथे भाख्यो श्रीजिनराज सूत्रे गणधर मुनि सिर ताज ॥ भ० ५ ॥ ए श्रुत सागर अगम अपार, अनंत अमल गुणरयणा धार । भवभय जलनिधि तरण जहाज निसुणी मगन भई सकल समाज ॥ भ० ६ ॥ भवकोटी लगे तप करी जीव अज्ञानी करे जितनी सदीव । कर्मनिरजरा तितनी होय, ज्ञानीके इक क्षणमें जोय ॥ भ० ७॥ एक सहस कोडि छसहकोडि, चतुरतीस कोडि अक्षर जोडि । अडसठि लाखहु alahakiclestatislcolaskalkalaakolahabakaratacardialpotohelalistialisoltikdalisonkelalockagladsiolicleshonalidadasticialistinioditionalishalirialiladrenakaasharadhakalphalustriolendradisiakalentistinentasterdiciar-oltdosbe
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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