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जैन-रनसार Fan नित भुवन विलसियो। असनं वसन सलिलादिक भक्ति, करिय संघनी
करुणा रसियो ॥ मे० ४ ॥ द्रव्य समाधि प्रथम ए सुनिये, कह्यो जिन । लोकालोक दरसियो । सारण वारण चोयण प्रमुखे, पतित सुथिर करे धरम । हरसियो ॥ मे० ५ ॥ भाव समाधि द्वितीय ए कहिये, जो करे सो जिन चरण फरसियो। सकल संघ को जो उपजावत, दुविध समाधि दुरित तसु नसियो ॥ मे० ६ ॥ सुमति पंच त्रण गुपति धरे नित, सुरगिरिवरनो धीरज करसियो । जगत जंतु अघ तपत हरनकू अनुभव अमृत धार वरसियो
॥ मे० ७ ॥ ध्यान अनल करमेंधन दाहत, जिनसें परगुण परणति . खिसियो । ए मुनितरणि तेज सम दीपत, अमृत सुखामृतपान तरसियो
॥ मे० ८ ॥ इन पदमें ऐसे मुनि जनके, समरनतें हुय जग अवतसियो । ए पद सेवी नृपति पुरंदर, भये जगपति जिन हरष हुलसियो । मे०९॥
प्रयत्नानलप्रयत्न अस्पताल ल्यायत्रतत्र वस्त्र प्रस्त्र
'PRIMAaplizatistiantatistianilisakatranslatakhtaretakstatistrictiotishshtolasavantalil
|| काव्य ॥
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सविदिया पारविकारदारी, अकारणा सेसजणोवगारी। महाभयातंकगणापहारी, जयो सदा शुद्ध चरित्तधारी ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रीचारित्रधारिभ्यो नमः ।
अष्टादश ज्ञानपद पूजा
॥ दोहा.॥ श्रुत अपूर्व अहिवं सदा, अष्टादश पद मांहि । इण पद सेवक जिन तणा, सहु संकट भय जांहि ॥१॥ जैसी कुमतिनि शुद्धता, घोर तपे करि होय । तत् अनंत गुण शुद्धता, सुज्ञानीकी जोय ॥२॥
(दिलदार यार गबरू, राखुरे हमारा घटमें) जिन चन्द्र नाम तेरा, महाराज ज्ञान तेरा। जीते रे विकट भव भेटने, सदपूर्वज्ञान धरणा ॥ वितरे जिनेन्द्र चरणा, करे सर्व कर्म हरणा ॥ जी० ३ ॥ जगमें महोपकारी, भय सिन्धु वारि तारी, कुमतांधता विदारी ।। जी० ४ ॥ सहु भावनो प्रकाशी, परम स्वरूप वासी, परमात्म
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