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जैन-रनसार
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सात हजार, अडसय असीय प्रमित चितधार । भ० ८ ॥ इतने वरनसे इक पद होय, एक श्लोकका गणित ए जोय । इक पदको परिमाण ए जाण, इण पदसे आगम परिमाण ॥ भ० ९ ॥ तीन कोडि अरु अडसठि लाख, सहस वैयालिस ए पद भाख । इतने पदसे अंग इग्यार, केरी गणना भवि चित धार ।। भ० १० ॥ बारम दृष्टिवादको मान, असंख्यात पदको पहिचान । इनको चौदपूरव इक देश, इसको पार लह्यो है गणेश ॥भ०११॥ एह दुवालस अंग उदार, एहनी जइये नित बलिहार । एहनी द्रव्यभाव बहु भक्ति, करिये धरिये जिनपदयुक्ति ॥ भ० १२ ॥ रत्नचूड नृप सुखमा धार जिनश्रुत भक्ति करी हितकार । भये जिन हरष परमपद दाय, जिनके सुर नरपति गुण गाय ॥ भ० १३ ॥
॥काव्य ॥ अण्णाणवल्ली वणवारणस्स, सुबोहिबीजांकुरकारणस्स । अणंतसंसुद्ध गुणालयस्स, णमो दयामंदर सत्थुयस्स ॥१४॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रुताय नमः । विंशतितम श्री तीर्थपद पूजा
॥ दोहा ॥ प्रवचनीय अरु धर्मकथी, वादि निमित्ती जाण । तपसी विद्या सिद्ध पुनि, कवि एह मुनिभाण ॥१॥ भाव तीर्थ प्रभुजी कह्या, प्रभावीक ए अष्ट । तीर्थ प्रभावन जे करे, ते फल लहे विशिष्ट ॥२॥
॥राग धन्या श्री॥ तीरथ परभावन जयकारा ॥ ती. जिनसे भव सागर जल तरिये; ते । तीरथ गुण धारा ॥ ती. ३ ॥ जिनके गणधर तीरथ कहिये, वलि सहु संघ सुखकारा । एह महा तीरथ पहिचानो, वंदि लहो भवपारा | ती० ४ ॥ अडसठ लौकिक तीरथ तजि करि, भज लोकोत्तर सारा । द्रव्यभाव दोय भेद लोकोत्तर, स्थिर जंगम भयहारा ॥ ती० ५॥ पुंडरीक पर मुख पंच
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