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________________ toto toto to to to to to tot जैन-रत्नसार ५८४ युगते जिनवर पूजियां, वलि पोख्या पात्र ॥ घ० ६१ ॥ पुस्तक ज्ञान लिखाविया, जिणहर जिन चैत्य । संघ चतुर्विध साचव्या ए, ए सांते क्षेत्र || ध० ६२ || पडिक्कमणा सुपरे करया, अनुकम्पा दान । साधू सूरि उवझाय ने, दीधा बहुमान ॥ ध० ६३ ॥ धर्म कारज अनुमोदिये, इम वारो चार । शिवगति आराधन तणो, सातमो अधिकार ॥ घ० ६४ ॥ भाव भलो मन आनिये, चित्त आणी ठाम । समता भावे भाविये, ए आतम राम ॥ ६० ६५ ॥ सुख दुख कारण जीव ने, कोइ अवर न होय । कर्म आप जे आचरयां, भोगविये सोय ॥ घ० ६६ ॥ समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुण्य काम । छारि ऊपर ते लीपणूं, आखर चित्राम ॥ घ० ६७ ॥ भाव भी परभविये, ए धर्म नो सार । शिवगति आराधन तणो, आठमो अधिकार || ध० ६८ ॥ ॥ रैवत गिरि ऊपरे ॥ हवे अवसर जानि करिय संलेखण सार, अणसण आदरिये पञ्चक्खी चार आहार । लुलता सवि मूंकी छांडी ममता अंग, ए आतम खेले समता ज्ञान तरंग ॥ ६९ ॥ गति चारें कीधा आहार अनन्त निःशंक, पण तृप्ति न पाम्यो जीव लालचियो रंक । दुसहो ए बली बली अनशन नो परिणाम, एह थी पामीजे शिवपद सुरपद ठाम ॥ ७० ॥ धन धन्ना शालिभद्र खन्धो मेघ कुमार, अनशन आराधी पाम्या भव नो पार | शिव मन्दिर जास्ये करी एक अवतार, आराधन केरो ए नवमो अधिकार ॥७१॥ दशमें अधिकारे महामन्त्र नवकार, मन थी नवि मूं को शिव सुख फल सहकार | ए जपतां जाये दुर्गति दोष विकार, सुपरे ए समरो चउद पूरब नो सार ॥ ७२ ॥ जन्मान्तरे जातां जो पामे नवकार, तो पातिक गाली पामें सुर अवतार । ए नवपद सरिखो मन्त्र न कोइ सार, इह भव ने परभव सुख सम्पति दातार ॥ ७३ ॥ जुओ भील भीलणी राजा राणी थाय, नवपद महिमा थी राजसिंह महाराय । राणी रतनवती बेहूं पाम्या छे सुरभोग, इक भवथी लेस्ये सिद्ध वधू संजोग ॥७४॥ श्रीमती ने ए बलि मन्त्र फल्यो ततकाल,
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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