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जैन-रत्नसार
....................... . . . सहु छार सम, भाव सहु मुखत्यार ॥७॥ जिन प्रतिमा जिनसारखी, भगवन् वचन प्रमाण । भावधरी प्रभु पूजता, लहिये सुख निर्वाण ॥७॥ शिव सुख से विमुखजिके, मिथ्या दृष्टी जीव । जिन प्रतिमा उत्थापकर, बांधे भवनी नींव ॥७२॥ धन्य दिवस जे ऊग में, मुझ आवे शुभ भाव.। मनवंछित सुख जब मिले, प्रगटे निज गुण दाव ॥७३|| चिन्तामणि सुरतरु समो, ए तीरथ सुखकार । दिन प्रति गुण को समर के, पामं भवजल। पार ॥७॥
(दाल) सेठेज साधु अनन्ता सीधा, ए तीरथ नी अद्भुत महिमा, धारो चित्त मझार रे। पंच प्रमाद विषय सुख छंडी, भेटो गिरि सुखकार रे ए तीरथ० ॥७५॥ मनुषा जन्म * पायके जे भवि, भेटे नहि गिरि एह रे। ते नर गरभा वासे कहिये, पशु
सम गिणती तेह रे ए तीरथ० ॥७६॥ जो तीरथ नी महिमा सुण के, उत्थापे निज बुद्धि रे । ते नर काल अनन्तो भमसी, दुर्लभ पामें सिद्ध रे ए तीरथ० ॥७७॥ इम जाणी मन भावधरी ने, भवि मिल आवे धाय रे । छहरी संयुत गिरि कु सेवे, प्रातः उठ मन भाय रे ए तीरथ० ॥७८॥ इह भव पर भव मांहे कीधा, जे नर पाप अधोररे । ते इण गिरि के फरसण सेती, दूर होय सहु चौर रे ए तीरथ० ॥७९॥ रोग सोग सहु नामें नासे, तूटे करम कठोर रे । दुष्ट देव देवी कामण सहु, भागे तीरथ जोर रे
ए तीरथ० ॥८०॥ आलोयणा लेई प्रभु साखे, पाप मेल सहु धोय रे । क्षण * में निज गुण उज्वल पामें, रजक दृष्टान्त तु जोय रे ए तीरथ० ॥१॥
समक्तिधारी जे सुर वरनी, थापना रही इहां जोय रे । धर्म बंधव जाणी वसु द्रव्ये, पूजा करे सहु कोय रे ए तीरथ० ॥८२॥ देव सहाये सहु संघ मांहे, आनन्द मंगल होय रे। ईत उपद्रव भय नहिं व्यापे, दुख दरिद्र
सहु खोय रे ए तीरथ० ॥८३॥ तीरथ यात्रा कर तीरथनी, भगति करो * मन शुद्ध रे। तीर्थकर पिण तीर्थ नमीने, दे उपदेश सुबुद्धि रे ए तीरथ० ॥८४|| निज निज शक्ति प्रमाणे जे भवि, सेल क्षेत्र निज बित्त मानव
लगत्र मन्त्रमन्त्री चन्द्र
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