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hritishatristischikkraistadasarala Stotram स्तोत्र-विभाग
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श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्र ___ कल्याणमन्दिर मुदार मवद्यभेदि, भीताभय प्रदमनिन्दित मङ्घ्रिपद्मम् । संसार सागर निमजदशेष जन्तु, पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृत मतिर्न वि भुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ स्मय धूमकेतो, स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥रयुग्मम्।। सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप, मरमादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक शिशुर्यदि वा दिवाऽन्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्म रश्मे ॥३॥ मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मो, नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्त वान्त पयसः प्रकटोऽपि यस्मा, न्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसद सङ्ख्य गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज बाहु युगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाऽम्बुराशेः ॥५॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश, वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमसमीक्षित कारितेयं, जलपन्ति वा निज गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य महिमा जिन ! संस्तवस्ते, नामापि पाति भक्तो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत पान्थ जनान्निदाघे, प्रीणातिपद्म सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म बन्धाः । सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग मभ्यागते वन शिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥ मुच्यन्त अपने कटे हुए हाथों को जुड़वाया। ये देखकर राजा ने आश्चर्यान्वित होकर वैदिक धर्म की प्रशंसा करने लगे। मत्री ने श्री मानतुंगाचार्य को मिलने की प्रार्थना की। प्रार्थना स्वीकार करके राजा ने आचार्य को बुला कर अपना मन्तव्य प्रगट किया। राजा का मन्तव्य सुन के आचार्य महाराज ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया कि हमारा प्रत्येक कार्य आत्म-धर्म के लिये है, चमत्कार के लिये नहीं ।" ये सुनकर राजा ने क्रोधावेश में आचार्य को गले से पैर तक ४८ सांकलों से जकड़ कर अंधेरी कोठरी में वन्द कर दिया। . कोठरी के अन्दर बैठे हुए आचार्य महाराज ने "भक्तामर स्तोत्र" रूप भगवान अपभदेव की स्तुति की रचना की और चक्रेश्वरी देवी ने स्वयं प्रगट होकर बंधन तोड़ दिये।
इस स्तोत्र की ४ गाथार्य भण्डार कर दी गई है। जो कि उपलब्ध नहीं होती और जो में उपलब्ध होती है वे नूतन है।
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